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मंगलवार, 4 नवंबर 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (14) आधा संसार (नारी उत्पीडन के कारण) (क) वासाना-कारा (ii) रूप-बाज़ार

                                                                                 (सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)

                                                   
चोरी से बिकता जहाँ, है आधा संसार |
वित्त कमाने के लिये, लगा रूप-बाज़ार !!
फुटपाथों पर रह रहे, कई लोग मज़बूर |
रोटी-रोज़ी के लिये, भटके घर से दूर ||
पेट भरें वे किस तरह, सहें भूख-सन्ताप 
फँसे बेबसी में करें, घोर घिनौने पाप !!
आग बुझाने जठर की, हैं कितने लाचार !
वित्त कमाने के लिये, लगा रूप-बाज़ार !!1!!
सदाचार क्या चीज़ है, इन्हें नहीं कुछ ज्ञान |
घर की इज़्ज़त बन गयी, रोटी का सामान  !!
अड्डे जुवे के हैं कई, घर पापों के धाम !
कई तरह से ये सभी, हुये बहुत बदनाम !!
होते रातों में जहाँ, खुल कर यौनाचार !
वित्त कमाने के लिये, लगा रूप-बाज़ार !!2!!
धर्म-जाति से हीन ये, रोटी इनका धर्म !
इनकी  घरनी- बेटियाँ, बेचा करतीं शर्म !!
इस बस्ती की नारियाँ, नर-आखेट-प्रवीण !
करतीं होटल क्लबों में, हैं रातें रंगीन !!
इन को भाती है सदा, नोटों की बौछार !
वित्त कमाने के लिये, लगा रूप-बाज़ार !!3!!
























2 टिप्‍पणियां:

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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