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गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

नयी करवट(दोहा-गीतों पर एक काव्य)(६)ढोल की पोल(ग)कोयल निकला ‘काग’ |

(सारे चित्र 'गूगल-खोज'ए साभार )


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लगे ‘सन्तई’ में मलिन काले काले दाग |

‘छल-प्रपंच’ में रँगे हैं, वे तेरे ‘वैराग’ ||

तूने की ‘मनमानियाँ’, बन कर ‘सन्त’ महान |

हम समझे ‘कोकिल’ तुझे, पर तू निकला ‘काग’ ||



मन में तेरे ‘ज़हर’ था, ‘शकर-पगे’ थे ‘बोल’ |

हमें लुभाता रहा था, गा कर ‘झूठे राग’ ||

झूम झूम कर नाचता, करता था ‘सत्संग’ |

कर ‘सम्मोहन’ धर्म का, रचा ‘ठगी’ का ‘स्वाँग’ ||



 तूने दे दी थी हमें, कलुषित ‘ज्ञान-अफ़ीम’ |

उतर गया है अब ‘नशा’, ‘बोध’ गया है जाग ||

थीं, ‘भँवरों’ के वेश में, ‘बर्रें’ तेरे साथ |

“प्रसून” भोले फँस गये, छला गया था ‘बाग’ ||


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           मेरे ब्लॉग 'प्रसून' पर, 'घनाक्षरी वाटिका' के षष्ठम् कुञ्ज(मिलन-पथ) में आप का स्वागत है |

  

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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