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शनिवार, 16 मार्च 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (ख) मौसम का उत्पात |( २) रूठ गया ‘मधुमास’ (प्रतीक गीत)



‘पवन’ चली ‘डाली’ हिली, झर गये ‘पीले पात’ |
‘मधुवन’ में ऐसा हुआ, ‘मौसम का उत्पात’ ||
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‘बीते युग’ की बात है, ‘बसन्त’ का इतिहास |
‘पतझर’ आया ‘बाग’ में, रूठ गया ‘मधुमास’ ||
यह विकास है सुभग ज्यों, ‘नागफनी का फूल’ |
ऊपर ऊपर खुशनुमा, भीतर पैने शूल ||
‘कोहरे’ ने देखो किया, ‘धूमिल, मलिन प्रभात’ |
‘मधुवन’ में ऐसा हुआ, ‘मौसम का उत्पात’ ||१||



यों तो चारो और हैं, महके हुये प्रसून |
पर इन के मन में छुपा, चुभता हुआ ‘जुनून’ ||
इस ‘पश्चिमी विकास’ ने, दी है ऐसी चोट |
सम्बन्धों में चुभ रही, लालच भरी कचोट ||
‘मानवता’ पर हो गया, है निर्मम आघात |
‘मधुवन’ में ऐसा हुआ, ‘मौसम का उत्पात’ ||२||


पुरखों ने बोये जहाँ, ‘मीठे मीठे आम’ |
काट के हमने बो दिये, हैं ‘बबूल उद्दाम’ ||
पोर पोर में चुभ रहे, ‘अन्तर्मन’ को साल |
पीडाओं’ के उग रहे, जहाँ तहाँ ‘कंटाल’ ||
किस से जा कर हम कहें, ‘अपने मन की बात’ |
‘मधुवन’ में ऐसा हुआ, ‘मौसम का उत्पात’ ||३||



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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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