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मंगलवार, 29 जनवरी 2013

प्रश्न जाल ( ??कहाँ से लाओगे ??)


मेरे (एक समस्या मूलक काव्य)
'प्रश्न-जाल'में एक

 नयी रचना का समावेश |

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‘सीधे सच्चे यार’ कहाँ से लाओगे ?
‘भोला भाला प्यार’ कहाँ से लाओगे ??
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मन में जला के ‘तृष्णा-अगिनी’ |
‘छल औ कपट के ताने भरनी’ ||
से बुन कर के ‘प्रीति-चदरिया’-
ओढ़ के चली ‘वासना-रमणी’ ||
‘निर्विकार रति’ नहीं रह गयी-
‘कामदेव अविकार’ कहाँ से लाओगे ?
‘सीधे सच्चे यार’ कहाँ से लाओगे ?
‘भोला भाला प्यार’ कहाँ से लाओगे ??१??


‘त्याग और बलिदान’ की बातें |
‘प्रेम’ में ‘जीवन-दान’ की बातें ||
लगतीं सब को ‘मिथक कथायें’
पीड़ा सह ‘मन-दान’ की बातें’ ||
‘शीरीं औ फ़रहाद’, ‘हीर’ से-
‘राँझे से किरदार’, कहाँ से लाओगे ??            
‘सीधे सच्चे यार’ कहाँ से लाओगे ?
‘भोला भाला प्यार’ कहाँ से लाओगे ??२??

 

दिल ‘पठार’ हैं, पत्थर से हैं |
‘नीर’ रहित, ‘सूखे सर’ से हैं ||
इन में ‘स्नेह’ के बीज न बोना-
‘मन’ ऊसर से, बंजर से हैं ||
‘पतझर वाली इन कुन्जों’ में-
‘बासन्ती व्यवहार’ कहाँ से लाओगे ??
‘सीधे सच्चे यार’ कहाँ से लाओगे ?
‘भोला भाला प्यार’ कहाँ से लाओगे ??३??

‘ओछी सोच’ औ ‘ओछी करनी’ |
जैसी ‘करनी’, वैसी ‘भरनी’ ||
‘श्रद्धा’, ‘आस्था’ ‘मैल’ में लिपटीं-
कीचड़ सी ‘निष्ठा-वैतरणी’ ||
‘पाप’ पखारे, ‘चित्त’ निखारे-
‘पावन गंगा धार’ कहाँ से लाओगे ?
‘सीधे सच्चे यार’ कहाँ से लाओगे ?
‘भोला भाला प्यार’ कहाँ से लाओगे ??४??

‘चित्त’ में मैली पली ‘कामना’ |
लोभ-स्वार्थ मय हर ‘उपासना’ ||
‘ज्ञान के अंजन’ में है ‘मिलावट’
व्यर्थ है इन से ‘नयन’ आंजना ||
‘धृतराष्ट्रों’ के संचालन में-
‘आँखों’ में ‘उजियार’ कहाँ से लाओगे ??
‘सीधे सच्चे यार’ कहाँ से लाओगे ?
‘भोला भाला प्यार’ कहाँ से लाओगे ??५??



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रविवार, 27 जनवरी 2013

(२)आज के गणतंत्र के ढंग | | (गणतन्त्र दिवस पर विशेष कटु सत्य प्रस्तुति)




 उलझनों में जी रहे हम हो चुके हैं तंग |
आज के गणतन्त्र के हैं, ये निराले ढंग || 

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डूबती यह ‘नाव’ कैसे ‘पा सकेगी पार’ !

हो सकेगा किस तरह जन जन का रे उद्धार !!

कौन किसकी ‘मलिनता’ को धो सकेगा आज ? 
क्योंकि सब पर ‘कलुषता’ का चढ़ चुका है रंग |     
आज के गणतन्त्र के हैं, ये निराले ढंग ||१||

 

‘घाव’ कितने कर चुके हैं ये ‘कँटीले वर्ष’ !

गिन लिये हैं उँगलियों पर, कई ‘मिथ्या हर्ष’ ||

‘विफलता’ की इस तरह कुछ, पड़ रही है ‘चोट’ |

दुःख रहे हैं ‘कामना’ के, ‘दर्द’ से ‘सब अंग’ ||

आज के गणतन्त्र के हैं, ये निराले ढंग ||२||

 

प्यार ‘वाणी’ में, थमा है ‘हाथ’ में ‘अणुबम्ब’ |

‘हम लड़ेंगे’, ‘हम लड़ेंगे’ का है कितना दम्भ !!

सुलगती लगती है, भीतर ‘ताप’ बाहर ‘शीत’-

छिड़ गयी है एक ‘शीतल आग वाली जंग’ |

आज के गणतन्त्र के हैं, ये निराले ढंग ||३||

 

‘राह’ में ‘काँटे’ सभी ने बो लिये हैं आज |

है ‘नुकीला और तीखा’, ‘आज’ का अन्दाज़’ ||

‘मन की धरती’ में उगे हैं, ‘कपट के कुछ बीज’-

सभी तो ‘छल-पन्थ-गामी’, चलें किसके संग ?

आज के गणतन्त्र के हैं, ये निराले ढंग ||४||

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शनिवार, 26 जनवरी 2013

गणतन्त्र के उपहार | (गणतन्त्र दिवस पर विशेष कटु सत्य प्रस्तुति)



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आओ गिनायें हम तुम्हें ‘गणतन्त्र के उपहार’ !
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पाँच वर्षों तक ‘प्रतीक्षा’ से जुड़े ‘अनुबन्ध |
वोट पाने के लिये खाई गई सौगन्ध ||
झूठ-छल से भरा कितना ‘चुनावी बाज़ार’ |
बन चुका ‘राजा-प्रजा का प्रेम’ यों ‘व्यापार’ |
आओ गिनायें हम तुम्हें ‘गणतन्त्र के उपहार’ !!१!!


काटते ‘विशवास’ का ‘सर’ ‘बुद्धिजीवी लोग’ |
और ‘शोषण-जीभ’ से कर ‘रक्त’ का उपभोग ||
हैं वस्त्र के भीतर छुपाये, ‘कपट की तलवार’ |
कर रहे, ‘बलि-पशु’ कटे ज्यों, ‘आपसी व्यवहार’ ||
आओ गिनायें हम तुम्हें ‘गणतन्त्र के उपहार’ !!२!!

 
मिलें ‘राशन’ की जगह, ‘भाषण के मीठे बोंल |
हर ‘तराजू’ रही है ‘अन्याय’ कितना तोल !!
इन ‘रूपधर बहुरूपियों’ से कौन पाये पार !
तोलते जो ‘न्याय’, लेते आज डंडी मार ||
आओ गिनायें हम तुम्हें ‘गणतन्त्र के उपहार’ !!३!!

 

‘व्यवस्था’ की ‘प्रगति-माला’ हो चुकी अब भंग |
है ‘नीति-डोरी’ से जुड़ी ‘प्रतिघात की पतंग’ ||
हुये, ‘वितरक’ ‘लोभ, तृष्णा-रोग’ से बीमार |
भूल कर कर्तव्य, सब के ‘हक़’ रहे हैं मार ||
आओ गिनायें हम तुम्हें ‘गणतन्त्र के उपहार’ !!४!!
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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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