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शनिवार, 7 सितंबर 2013

पौण्ड्रक (४)धर्म-जंजाल |


जब तक बहु प्रचार प्राप्त 'धर्म-दानवों' का विनाश नहीं होता और 

मुझे जीवन मिले, तब तक कभी कभी अपने भाव इस धारा में 

प्रवाहित रखूँगा ! साधारण मनुष्य के इस प्रकार के अपराध से कई 

सहस्र गुना(जितने इस के अनुयायी हैं उतना गुना) इस 'धर्म-दानव'

का दण्डनीय अपराध है !!

(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)     

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‘पोल’ खुल गयी, हो गया, है अब ख़स्ता हाल |
‘ईश्वर’ खुद को कह रहा, था रच कर जंजाल ||
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पिश्ता-काजू खा हुआ, है यह ‘मोटे पेट’ |
है ‘बाबा’ के  भेस में, ‘पूँजी धारी सेठ’ ||
क्या लेना है ‘नाम’ से, कुछ भी रख लो नाम |
चलो, नाम भी रख लिया, मानो ‘झाँसाराम’ ||
मालिक ‘दसियों अरब’ का, है ‘कुबेर का लाल’ |
‘ईश्वर’ खुद को कह रहा, था रच कर जंजाल ||१||


इस ‘कूकर’ के गले में, ‘सोने की जंजीर’ |
‘माया’ में उलझा हुआ, बनता ‘सन्त-प्रवीर’ ||
लोग हमारे देश के, अब भी कुछ कंगाल |
‘खून-पसीना’ बहा कर, खाते ‘रोटी-दाल’ ||
एक तरफ़ यह ‘पौण्ड्रक’, खाता था ‘तर माल’ |
‘ईश्वर’ खुद को कह रहा, था रच कर ‘जंजाल’ ||२||


‘प्रसून” हद से गुजर कर, ‘सीमाओं’ को तोड़ |
जीत गया यह ‘दैत्य-नर’, शैतानों से होड़ ||
हर ‘पैशाचिक साधना’, का था यह ‘उस्ताद’ |
बोता ‘ज्ञान के खेत’ में, यह ‘ज़हरीली खाद’ ||
फांस रहा था ‘मछलियाँ’, ‘धर्म की बंछी’ डाल |
‘ईश्वर’ खुद को कह रहा, था रच कर जंजाल ||३||


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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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