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सोमवार, 24 सितंबर 2012

ज़लज़ला (भीषण परिवर्तन) (क)वन्दना) (१)ईश-वन्दना)-हे प्रभु उतरो इस धरती पर !!


ज़लज़ला

(भीषण  परिवर्तन)



स्वतंत्रता' का 'धीरज टूटा |



हे प्रभु उतरो इस धरती पर !!


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कलि'ने अपना 'बिगुल' बजाया |

'पुण्य-दलन अभियान ' चलाया ||


चली 'वासना' अपनी बाहें 'तृष्णा' की बाहों में डाले |


तुम्हें छोड़ कर कौन जगत में जो इन सब से सृष्टिबचा ले !! 



'राजनीति'बन ठन कर निकली |



खेल' खेल कर स्वाँग सा झूठा-



ठठ्ठा मार रही है जी भर | 



हे प्रभु उतरो इस धरती पर !!१!!


 


हैं 'विनाश' ने नयना खोले | 


'धर्म-रत्न 'सब छिपे टटोले ||








लगता इन्हें लूटने आया,'दुराग्रह' को साथ में लाकर |


'मानवता की रत्न-पिटारी' पटकी,खोली, और हिलाकर ||


चुरा लिए हैं  'शील के मोती '|


किया है अपहृत 'प्रेम अनूठा '|


'विश्वासों की माला' ली हर |


हे प्रभु उतरो इस धरती पर !!२!! 



नाच रही है अट्टहास कर |


चहुँ तरफा मैली कुवास भर ||


धसक धसक कर धरा डोलती,लगता कोई ज़लज़ला आया |


'सज्जनता' को पीड़ा पहुँची,न७यनोन नीर छलकता आया ||


'हिंसा','छलना',सहेलियाँ दो,


'मर्यादा' को दिखा अंगूठा |


निकली हैं, लगता मद पी कर |

हे प्रभु उतरो इस धरती पर !!३!!



चला  'स्वेच्छाचार'  रौंदने |



'मानवता'  की जड़ें खोदने ||



'करुणा ',' दया 'औ 'ममता ' भागीं,छुपने अपनी 'लाज 'बचाने |


संयम,नियम के बन्धन तोड़े,'मनमानी ' का नाच नचाने ||


ज्यों हिंसक मरखने बैल ने, 


तोड़ दिया हो अपना खूँटा |   


कुचल रहा हो,सबको जी भर |




हे प्रभु उतरो इस धरती पर !!४!!


About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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