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शनिवार, 18 मई 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (ठ) आधा संसार | (नारी उत्पीडन के कारण) (२) दहेज़-दानव (ii) झुलसे जले सरोज |


दहेज़  की आग में 'माँ की ममता'  पिटा का प्यार जल गया | दहेज़ का लोभ माँ को इतना ममता हीन बना देता है कि अपने बेटे के प्यार और उसकी पसंद को भी नहीं देखता है | बेटा बहू को चाहता है तो चाहे , पर  माँ बाप कोतो धन चाहिये नहीं तो मार देते हैं उस की प्रिया को निर्दयी लालची !!
(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
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जला ‘दहेज़ी आग’  में,  है  ‘नारी  का ओज’ |
आग लगी  है ‘झील’ में, झुलसे जले ‘सरोज’ ||
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जले   ‘कुमुदिनी   के   सुमन’,  हुआ   है  राख ‘पराग’ |
‘मधु’  जल   कर  कड़वा  हुआ,  इतनी  निर्दय  ‘आग’ ||
सास  न  ‘माता’  रह  गयी,  ससुर  नहीं है ‘बाप’ |
‘सुता-वधू   को   मार  कर,  करते  दोनों  ‘पाप’ ||
देश  के  हर  अखबार  में,  छपतीं  खबरें   रोज़’ |
‘आग’ लगी  है  ‘झील’ में, झुलसे जले  ‘सरोज’ ||१||


जला  रहा  है  देश  को,  ‘दहेज़  का  संताप’ |
उगले  ‘दैत्य’ ‘अग्नि-मुख’,  जैसे  ‘दाहक ताप’ ||
‘सुमन’ जले ‘कलियाँ’ जलीं, जले सुगढ़ दल-पात |
ज्यों ‘दावानल’ का हुआ,  ‘सु-वन्’ में कभी निपात ||
नारी   नारी   पर  हुई,   कैसे   भारी   बोझ |
‘आग’ लगी  है  ‘झील’ में, झुलसे जले  ‘सरोज’ ||२||


‘लता प्रीति की’ कुल - वधू, किया  उसी  का  दाह | उस  का  प्रियतम  पुत्र  निज, भरता ‘ठण्डी आह’ ||
थोड़े  से  धन  का  किया,  मात-पिता  ने  लोभ |
अपने  बेटे  को  दिया,  जीवन   भर  का  क्षोभ ||
बुझे  ‘आग’  यह  अब  करो,  ऐसी  ‘कोई  खोज’ |
‘आग’ लगी  है  ‘झील’ में, झुलसे जले  ‘सरोज’ ||३||

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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