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शुक्रवार, 22 जून 2012

शंख नाद (एक ओज गुणीय काव्य) (अ) वन्दना (१) प्रभु-वन्दना (हे प्रियतम पूर्ण निर्विकार !!

      


हे प्रियतम पूर्ण  निर्विकार ! 

!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
 
किस युग में व्याप्त रहा न मल |
किस युग में रहा न पाप प्रबल ||
तुम पूर्ण तया निर्लिप्त रहे -
ज्यों पंक-ताल में खिले कमल ||
सत्,रज,तम तीनों अपना कर -
तुम हरते आये हर विकार ||
हे प्रियतम पूर्ण निर्विकार !!१!!
    

      
    
सतयुग, त्रेता,द्वापर युग में |
जब अनाचार फैला जग में ||
तुम सत्य और शिव या सुन्दर -
रंग स्वयम् को प्रियतम हर रंग में||
मर्यादा, लीला, माया धर-
हरते हो समस्या दुर्निवार ||
हे प्रियतम पूर्ण निर्विकार !!२!!   
  

   
देखो फिर रावणऔर कंस |
हिरणाकश्यप के जगे वंश ||
त्रिपुरासुर अशिव कामना के -
करते 'शिव' का हैं नाश ध्वन्स ||
तुम राम, कृष्ण या शिव बन कर -  
दो इन्हें सहज ही आज मार ||
हे प्रियतम पूर्ण निर्विकार !!३!!
    
    
फूँको कोई प्रेरणा -शंख |
मेटो निद्रा ,आलस् कलंक ||
सत् -तेज की तेज़ कटारी से -
काटो अँधियारे पाप-पंख ||
ले धनुष बाण या शूल-चक्र -
तुम करो धरा का  महोद्धार ||
हे प्रियतम पूर्ण निर्विकार !!४!!
         
तुमको कोंई कहता 'ईश्वर' |
'भगवान'- 'खुदा'- 'रब' संज्ञा धर ||
 मैंने माना मन-मीत तुम्हें-

हे दया-कृपा-करुणा सागर ||
बन बुद्ध बुद्धि को चेतन कर -
युग का कर दो आकर सुधार ||
हे प्रियतम पूर्ण निर्विकार !!५!!
    
हे व्यष्टि ब्रह्म!तुम ही समष्टि |
सब पर रखते तुम ही सुदृष्टि ||
ऊसर धरती के लिये मीत!
उर्बरा बनाने हेतु 'वृष्टि' ||
मन प्रेम-सुधा -रस से सूखे -
बरसाओ इन पर सरस धार ||
हे प्रियतम पूर्ण निर्विकार !!६!!
 
व्यापा कितना कलि का जूनून |
मानवता का करता है खून ||
दुर्दशा समय की देख देख -
व्याकुल देखो कितने "प्रसून" ||
युग -परिवर्तन करने आओ -
हरने आओ हर पाप-भार ||
हे प्रिय पूर्ण निर्विकार !!७!! 
   



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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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