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मंगलवार, 3 जुलाई 2012

शंख-नाद (एक ओज-गुणीय काव्य) (अ)वन्दना (४)-राष्ट्र-वन्दना



हे भारत राष्ट्र जगो!जगो!!

!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
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आलस्य और अघ तजो तजो !

हे भारत राष्ट्र ,जगो! जगो!! 

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तुम फूंको शंख प्रेरणा का |



गाओ नव राग चेतना का ||

'अनुचित परिवर्तन'के घन ने -

बरसाया नीर वेदना का ||

'संस्कृति' का तन है दुखा-दुखा |  

देखा इसका मन बुझा बुझा ||

इस प्राणों में तन्द्रा है | 

नयनों में मद है,निद्रा है ||

यह निद्रा औ तन्द्रा टूटे -

बन कर के भेरी बजो बजो ||

हे भारत राष्ट्र! जगो जगो !!१!!

       


'अविवेक' ने जाल बिछया है |

अज्ञान का खेल रचाया है ||

मानव को दास बना कर के -

उँगली पर इसे नचाया है ||

मन बुद्धि पे नीरस पत्थर हैं |

व्यवहार हुए अति बर्बर हैं ||

चेतना सुन्न ज्यों किये नशा |

इस चमक-दमक में फँसा फँसा ||

'अविवेक' शत्रु से लड़ने को -

शस्त्रों-अस्त्रों से सजो सजो ||

हे भारत राष्ट्र जगो जगो !!२!!   
   

अपनी गरिमा को पहचानो |

तुम जगद्गुरु थे यह जानो ||

यह विश्व तुम्हारा अनुगत था 

 तुम अग्रेसर थे यह मानो ||

तुम थे "प्रसून" नंदन वन के |

दे कर सुगन्ध जग में महके ||

सारे जग में डंका बजता |

जो भी सुनता पीछे चलता ||

अपनी वह शक्ति बटोरो फिर - 

इतिहास पुराना रचो रचो || 

हे भारत राष्ट्र जगो जगो !!३!!

   

  

About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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