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शनिवार, 1 नवंबर 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (14) आधा संसार (नारी उत्पीडन के कारण) (क) वासाना-कारा (i) अभाव-जाल |

                                       

 (सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)

                                               पश्चिम की सभ्यता के लिए चित्र परिणाम
कुछ पश्चिम की सभ्यता, कुछ अभाव का भार !
फँसा वासना-जाल में, है आधा  संसार !!
महानगर में देखिये, अजब निराली शाम !
सस्ती महँगी बिक रही, सुन्दरता अभिराम !!
तन के लोलुप हैं कई, काम के प्यासे लोग !
रूप की सुरा खरीद कर, करते कामुक भोग !!
विकास ने कुछ घिनौने, कितने किये प्रहार !
फँसा वासना-जालमें, है आधा संसार !!1!!
हीरोइन-स्मैक की,  लत के हुए गुलाम |
इन को पी, धन फूँक कर,घरआते हैं शाम ||
मज़दूरी कर दिवस भर, रचते कई फ़रेब  |
लगा जुवे के दाँव पर, खाली करते जेब ||
उनकी कुल-वधु-बेटियाँ, करतीं  तन-व्यापार !
फँसा वासना-जाल में, है आधा संसार !!2!!
नशेड़ियों की झुग्गियाँ, बनीं भोग-बाज़ार !
इनमें बेबस नारियाँ, ललनायें लाचार !!
जिन पर गिरती भूख की, निठुर निगोडी गाज !
कई सुतायें बेचतीं, कोमल-कोरी  लाज !!
निबटातीं ऋण रूप से, ले कर कई उधार !
फँसा वासना-जाल में,है आधा संसार !!3!!

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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