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शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

ज्वालामुखी (एक गरम जोश काव्य) (ख) आग का खेल (१) ‘चाँदनी’ जल रही (प्रतीकों में ‘भीषण परिवर्तन’ की एक झलक)



आग का खेल



    
    (ख)





(मेरे ब्गलोर-साथियो, मेरे इस काव्य की वन्दना-प्रभाग के बाद की 
यह पहली अति यथार्थवादी रचना आज से लगभग २८ वर्ष से पूर्व 
के महाविप्लवसे पूर्व मेरे अंतर के 'कवि'की तत्कालीन भविष्य-दृष्टि 
के रूप में थी | आज भी भीतर भीतर सुलगती हुयी परिस्थितियाँ 
वैसी ही प्रतीत हो रही हैं 'उसे' !! पुरानी अच्छाइयाँ जल रही हैं | 
नयी अच्छाइयाँ भी पुरानी रूढियों में दब रही हैं | मैली 'धुआँरी 
आग'जीवित है जो नयी 'प्रदूषित ऊर्जा' से गठजोड़ कर के एक
'सुषुप्त सामाजिक ज्वालामुखी के विस्फोट' का 'प्रसव' करने की 
तैयारी कर रही है | 'चाँदनी'प्रतीक है-शान्ति,मर्यादा व् भारती संस्कृति' का |)
   

     
   
     ‘चाँदनी’ जल रही

(प्रतीकों में ‘भीषण परिवर्तन’ की एक झलक)

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| ‘चाँद के जिस्म’ से ‘आग’ झरने लगी,

‘चाँदनी’ ‘जल रही’, ‘यामिनी’ की क़सम |

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‘रजनी गन्धा’ तले कौन है आ गया,हर ‘कली’ हर ‘सुमन’आज भयभीत है |

‘गन्ध का मुहल्ला’ झाँकता है बगल,’कौन किसका कहाँ कितना मन मीत है ||

किस की ‘पापी नज़र’ ‘बाग’ को लग गयी,’कोंपलें जल रहीं’ ‘दामिनी’की क़सम !!

चाँद के जिस्म से आग झरने लगीं,’चाँदनी’ ’’जल रही’ ‘यामिनी’ की क़सम ||१||




तीव्र गति से बढ़ीं ‘कामनाएं कई,’द्वेष का बोझ’ ले ‘चाह के गाँव’ से

लड़खड़ाती हुई उठने-गिरने लगीं,कौन कब बच सका ‘मृत्यु के दाँव’ से !!

और ‘इच्छाओं की सजनि’ की सांस तो,आख़िरी चल रही ‘भामिनी’की क़सम |

चाँद के जिस्म से आग झरने लगीं,’चाँदनी’ ’’जल रही’ ‘यामिनी’ की क़सम ||२|| 








‘भावना-द्रौपदी’’चीर’ को देख कर,’नग्नता के नगर’में बिलखने लगी |

और ‘अभिव्यक्ति के कुटिल कौरव’ खड़े’ हँस मद्य पी ‘लाज’ लुटने लगी ||

‘क्रान्ति का कृष्ण’ है आँख मूंदे खड़ा’,’रीति’ अब छल रही,’कामिनी की क़सम ||

चाँद के जिस्म से आग झरने लगीं,’चाँदनी’ ’’जल रही’ ‘यामिनी’ की क़सम ||३||



 










‘छन्द’ बीमार हैं’, ’गीत घायल हुये’, गज़ल बूढ़ी हुई’,’गान आवारा हैं’ -

और संगीत की बाजुएं कट गयी’ ‘हर तरन्नुम’ बना आज नाकारा है |

कौन गाये कहाँ, ‘हर सभा’, ‘वासना-पंक’में गल रही,’रागिनी’ की क़सम |

चाँद के जिस्म से आग झरने लगीं,’चाँदनी’ ’’जल रही’ ‘यामिनी’ की क़सम ||४||



 

 






शब्द-कोष -
यामिनी=अँधेरी रात, दामिनी=तड़ित(बादलों की बिजली), भामिनी=पत्नीया प्रेमिका
कामिनी=सुन्दर नारी,   
      

ज्वालामुखी (एक गरम जोश काव्य) (क)वन्दना (४) राष्ट्र-वन्दना


         

        




राष्ट्र-वन्दना




(मेरे भारत देश)




       ! मेरे भारत देश,स्वर्ग से


   सुन्दर और सु रूप हो तुम !




    
  
  



शान्त चित्त तुम, अवढर दानी-आगत के सत्कारक हो ! 


हृदय विशाल गगन सा व्यापक,चिर गंभीर विचारक हो !!


‘धर्म-भेद’ से रहित ‘स्व्च्छ्मन’,’मानवता’ का रूप हो तुम !!


तुम सा कौन जगत में होगा,तुलना-हीन अनूप हो तुम !!१!!



 
 
  




सहन शक्ति है असीम शिव सी,जग जाते तो रौद्र महा |


वैरी को भी गले लगाया, उसका अत्याचार सहा ||


पर जब तूमने ‘करवट बदली’,’विप्लव’ हो,’विद्रूप’ हो तुम !


तुम सा कौन जगत में होगा,तुलना-हीन अनूप हो तुम !!२!!




  



‘ओज-अनल’ को सहेज रखते,’शान्त ज्वालामुखी’ हो तुम !


तुम न कभी हो सत्ता लोलुप,है तुम में अनंत संयम ||


दैत्य जब आक्रामक होते, ‘त्रिदेव के प्रारूप’ हो तुम !!


तुम सा कौन जगत में होगा,तुलना-हीन अनूप हो तुम !!३!!


 



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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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