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सोमवार, 18 मार्च 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य (ग) चूर एकता (रूपक-गीत)



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‘स्वर्थपरता’ की निठुर, पड़ी चोट भरपूर |
धीरे धीरे ‘एकता’,  हुई जा रही चूर ||
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‘ईर्ष्या’ से सुलगा सदा, ‘अन्तर’ का अनुराग |
जैसे ‘तड़ित की आग’ में, झुलसे ‘सुन्दर बाग’ ||
‘दिल’ हो गये ‘तिजोरियाँ, ‘प्यार’ बना ‘व्यापार |
‘स्वर्ण-रजत’ की चाह का , गरम हुआ ‘बाज़ार’ ||
‘अपनों’ से ‘अपने’ हुये, कितने देखो दूर |
धीरे धीरे ‘एकता’,  हुई जा रही चूर ||१||


‘मन की झील की सतह’ पर, ‘लोभ’ की उगी ‘सिवार’|
‘कमल’ खिला कर ‘स्नेह’ के, इस का करें निखार ||
‘रिश्तों-नातों’ पर चढी, ‘खुदी’ की ‘मैली गर्द’ |
इसे हटा कर यत्न से, समझे ‘मन का दर्द’ ||
‘इंसानी जज्वात’ का, रहा यही दस्तूर |
धीरे धीरे ‘एकता’,  हुई जा रही चूर ||२||




‘जातिवाद’ के नाम पर, दल बन गये अनेक |
भूल गये हम इस तरह, ‘राष्ट्रवाद’ की टेक ||
‘धर्म’-‘कर्म कर्तव्य’ है, दें सब को ‘सन्देश’ |
‘अपनी ‘सत्ता’ से बड़ा, होता ‘अपना देश’ ||
इसके ‘अमन’ के ‘चमन’ को, ‘गिद्ध’ रहे कुछ घूर |
धीरे धीरे ‘एकता’,  हुई जा रही चूर ||३||


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About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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