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रविवार, 7 अप्रैल 2013


झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (च) जोंक (२) प्रेत-पिशाचिनी |


(सारे चित्र 'गूगल-खोज से साभार)



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‘शोषण’ के बढ़ने लगे, भारी अत्याचार |

‘भारत की धरती दबी, सह कर ‘इतने भार’ ||


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ताक़ में हमने रख दिया, है ‘राष्ट्र का स्वत्व’ |

सम्विधान से अधिक हैं, रखते ‘निजी प्रभुत्व’ ||

लम्पट, लोभी लालची, नेता हुये अनेक |

‘सिद्धांतों को जला कर, ‘रोटी’ रहे हैं सेंक ||

‘अमन-चैन’ के शीश पर, कितने किये प्रहार |

‘भारत की धरती दबी, सह कर ‘इतने भार’ ||१||


 ‘अनाचार  का  हथौड़ा’, ‘हठधर्मी के  हाथ’ |

‘सदाचार’ का तोडने,  निर्दयता  से  ‘माथ’ ||

‘नीति-न्याय के माथ’ पर, ठोक रहे ‘गुलमेख’ |

‘प्रजातंत्र’ घायल किया, और  रहे  हम  देख ||

‘दया-मनुजता’-धर्म  को, हमने  दिया  है मार |

‘भारत की धरती दबी, सह कर ‘इतने भार’ ||२||


‘दहेज’  को  रोको  तथा,  रोको   ‘वैरिन  घूस’ |

इन  दोनों  ने  ‘प्रेम-रस’,  लिया  है  सारा चूस ||

दोनों  ‘प्रेत-पिशाचिनी’,   जैसे   क्रूर-कराल |

‘मानवता’ को खा गये,चल कर कुटिल ‘कुचाल’ ||

कौन बचाए अब हमें, सुन कर करुण पुकार |

 ‘भारत की धरती दबी, सह कर ‘इतने भार’ ||३||



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झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य)(च)जोंक (१)(कंट-माल)


नारी शोषण की बातें केवल भारी भरकम भाषणों में होती हैं | बिना समा-
धान ही आवाज़ थम गयी है | जब तक सुधार-समाधान न हो,साहित्यकार को अपनी आवाज़ सत्याग्रह के रूप में बिना वाहवाही की लालसा के निरंतर 
उठाने देना चाहिये | (गूगल में साहसी यथार्थदर्शी चित्र- प्रकाशक साहित्यकारों को सधन्यवाद वधायी एवं आभार)    
 



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शोषण के हाथों थमा, ‘पैना अत्याचार’ |
‘मानवता’ के बदन पर, कितने हुये प्रहार ||


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चुरा चुरा कर बेचते, ‘प्रकृति के परिधान’ |
‘चीर धरा का’ हरण कर, बने निठुर इंसान ||



‘घूस-कमीशन-दानवों’,  की  आयी  है बाढ़ |
‘प्रगति की हिरनी’ को चबा, रही है इनकी ‘दाढ’ ||



‘लाभ-लोभ’ ने ‘लूट’ का, किया गरम बाज़ार |
‘मानवता’ के बदन पर, कितने हुये प्रहार ||१||


‘ट्यूशन’ ने ‘तालीम’ में, जमा लिये हैं पाँव |
‘गिरू-शिष्य का प्रेम’ है, चढ़ा इसी के दाँव ||


चुरा चुरा कर बेचते, हैं ‘सरकारी माल’ |
‘चोरों के दुश्चक्र’ से, हुआ देश ‘कंगाल’ ||
‘सेवक’ सेवा’-रत कई, करते हैं व्यापार |
‘मानवता’ के बदन पर, कितने हुये प्रहार ||२||


रुके दफ्तरों में अगर, ‘कुलटा पापिन घूस’ |
‘ट्यूशन’ भी रुक जायेगी, रक्त रहे ये चूस ||
सबसे पहले रोकिये,  ‘पापी  कुटिल  दहेज़’ |
जिस की ‘मार’ से ‘देश का सीना’ है  लवरेज़ ||
बिना  एक  के  दूसरे,  का  रुकना  बेकार |
‘मानवता’ के बदन पर, कितने हुये प्रहार ||३||
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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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