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बुधवार, 1 मई 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (ट) ‘मानवीय पशुता’ | (७) कूकर-बिलाव

 विषय  को पुष्ट करने के लिये चित्र यदि ईमानदारी से डालते तो 'प्रश्न चिन्ह' लग जाता अत: बीच का रास्ता अपनाया !वास्तव में अपने बच्चों के साथ हम जो प्रदर्शन हम देखते हैं उन में यौन का उबाल पैदा हो रहा है | वासना का ज्वालामुखी बच्चों में समय से पूर्व फूट रहा है | बलात्कार की  और बाल-बाला-अपहरण की घटनाएँ इस का कुपरिणाम हैं |
(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
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वाह वाह क्या खूब है, यह ;युग का बदलाव’ |

हारे   हैं  ‘इंसान’  से,  ‘कूकर और बिलाव’ ||

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‘कैट-वाक’  में  देखिये,  ‘ललनाओं का  रूप’ |

‘खुले खुले मैदान’ की,  ‘कामुक कामुक धूप’ ||

छुपे हुये हर ‘हर अंग’ पर, ‘दो अंगुल का चीर’|

भर भर ‘अंजुलि’ पीजिये, ‘खुला रूप का नीर’ ||

हर  आयु  में  झेलिये,  ‘यौवन  का सैलाव’ |

हारे  हैं  ‘इंसान’ से,  ‘कूकर और बिलाव’ ||१||


‘फैशन टी.वी.’ देख कर, कामुक  हुये  किशोर |

‘काम की मैली गर्द’ से, गँदला ‘उम्र का भोर’ ||

‘कच्ची कच्ची आयु’में, ‘कलियाँ’ बनी हैं ‘फूल’ |

‘यौवन के सुख’ ढूँढतीं, ‘अपना बचपन’  भूल ||


‘तट’  से  पहले  डूबती,  ‘बीच धार में नाव’ |

हारे  हैं  ‘इंसान’ से,  ‘कूकर और बिलाव’ ||२||



इन चित्रों से कर रही, ‘पशुता’ मन  में  वास |

‘बचपन’ से पहले जगी, है ‘यौवन की प्यास’ ||

‘जंघा-जघन-प्रदेश’  तक,  हुये  ‘आवरण-हीन’ |

दर्शक गण का इन्होंने, लिया ‘चैन-सुख’ छीन |

‘मानस-सरवर’ बन  गया,  है  ‘मैला तालाव’ |

हारे  हैं  ‘इंसान’ से,  ‘कूकर और बिलाव’ ||३||

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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