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बुधवार, 7 अगस्त 2013

मंगल-गीत (२)भारत धरा हमारी |

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दशों दिशाओं में वरदायी, सुख की छटा हो प्यारी |
सारे जग को खुशी लुटाये, भारत-धरा हमारी ||
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हरिश्चन्द्र सी दानवीरता, हम सब को सिखलायें |
माता पिता की सेवा श्रवण सी, सभी देश अपनायें ||
रन्तिदेव, शिवि, कर्ण आदि की त्याग से भरी कथायें |
सिखलाती हैं सेवा करना, भूल के निजी व्यथायें ||
मर्यादा की सीख राम से, सीखे दुनियाँ सारी |
सारे जग को खुशी लुटाये, भारत-धरा हमारी ||१||

कृष्ण से सीखें सदा सुदामा से निर्धन अपनाना |
भूल के वैभव अकूत धन का, मीत को गले लगाना ||
और बुद्ध से ‘राज-पाट’ तज, ‘राज-भवन’ से जाना |
‘शान्ति-खोज’ के लिये ‘भोग के सारे ‘स्वाद’ भुलाना ||
 सत्य-अहिंसा से से व्यवहारों की महके फुलवारी |
 सारे जग को खुशी लुटाये, भारत-धरा हमारी ||२||

चन्द्रगुप्त मौर्य से सीखें, साहस अडिग जुटाना |
सीखें हम चाणक्य से ‘मोती नीति के’ और लुटाना ||
और विक्रमादित्य से सीखें, ‘धर्म की अलख’ जगाना |
तथा हर्षवर्द्धन से सीखें, ‘दान की आन निभाना ||
और हठी हम्मीर के हठ पर, धर्म-धीर बलिहारी |
सारे जग को खुशी लुटाये, भारत-धरा हमारी ||३||

राणा प्रताप, शिवा सिखायें, स्वतंत्रता हित लड़ना |
मंगल पाण्डेय तात्या टोपे जैसे सीखें बनना ||
भगतसिंह, शेखर, बिस्मिल से, ‘बलि-वेदी’ पर चढ़ना |
गान्धी से हम सीखें,’सत्य-अहिंसा-व्रत’ पर अड़ना ||
“प्रसून” लक्ष्मी बाई सी हो ‘वीर-व्रती’ हर नारी |
सारे जग को खुशी लुटाये, भारत-धरा हमारी ||४||
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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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