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सोमवार, 9 सितंबर 2013

दो रचानीयें (क) पौण्ड्रक (५)नर-पिशाच | (ख) गज़ल (देश में हिंसा की आग) (१) डूबा देश बबाल में |

हालात वतन के बद से बद और असहनीय  होते जा रहे हैं |अभी देश की बेटियों की आये दिन 'दुर्दशा' की पीड़ा से उबरे नहीं, लों कल ही मुजफ्फर नगर ज़िले की खूनी आग की खबर दिल पर चोट पहुँची है |दोनों पर एक एक रचना  |
(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार) 
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‘नर-पिशाच’ यह पहन कर, ‘ज्ञान के उजले वस्त्र’ |
‘कपट तपस्वी’ छा गया, ‘ज्ञानी’ बन सर्वत्र ||
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कभी ‘दूधिया’ बन गया, कभी ‘कोयला-चोर’ |
‘मदिरा का तस्कर’ कभी, यह ढोंगी बरज़ोर’ ||
कभी ‘तांत्रिक’ बन गया, ‘तन्त्र-कुविद्या’ सीख |
अपनाई थी ‘बलि-प्रथा’, चला ‘पाप की लीक’ ||
पछताये ‘चेले’ कई, खो कर अपने पुत्र |
‘कपट तपस्वी’ छा गया, ‘ज्ञानी’ बन सर्वत्र ||१||


कथा वाचने में निपुण, यह ‘छलिया’ वाचाल |
समझ न पाये हम कभी, इस की ‘टेढी चाल’ ||
‘प्रवचन’ की चलती रही, इस की ‘खुली दुकान’ |
बक बक करता ‘बकासुर’, हम न सके पहँचान |
‘पूँजी-पति’ यह बन गया, करके  धन एकत्र |
‘कपट तपस्वी’ छा गया, ‘ज्ञानी’ बन सर्वत्र ||२||

दिखा ‘नमूने’ ज्ञान के, बाँट रहा ‘अज्ञान’ |
‘प्रसून” इस के ‘छद्म’ से, हम सब थे अनजान ||
‘पाप-कर्म’ करता रहा, ‘धर्म की ढपली’ पीट |
जैसे ‘फल’ को खोखला, करता कोई ‘कीट’ ||
‘धर्म’ का वध करते रहे, ‘पाखण्डों के शस्त्र’ |
‘कपट तपस्वी’ छा गया, ‘ज्ञानी’ बन सर्वत्र ||३||


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(देश में हिंसा की आग)
(१)  डूबा देश बबाल में |

(गज़ल)
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भीतर भीतर  पनपी ‘कीचड़’, डूबा देश ‘बबाल’ में |
‘वतन’ का क्या होगा हम उलझे उलझे इसी ‘सवाल’ में ||
कहीं ‘सन्त’ कर चुके ‘घिनौने काम’ ‘ज्ञान’ की आड़ में –
पड़ी ‘नज़र शैतानी’ हम पर, है देखो इस साल में ||
अरे मुजफ्फर नगर जिले में,’आग’ लगाई ‘हिंसा’ ने-
देखो तो जाकर के क्या क्या हुआ है शाहर कवाल में ||
धधकी ‘आग’ शामली में है,’अधर्म-पथ’ पर ‘धर्म’ चले-
पता नहीं ‘मानवता’ उलझी, किस ‘पिशाच’ के जाल में ||
किस की साजिश बनी नुकीली, ‘घायल’ बदन ‘सभ्यता’ का-
ढंग से देखो मिल जायेगा, कुछ तो ‘काला‘ ‘दाल’ में ||
तुम कहते हो हुई ‘तरक्की’,सब का हुआ ‘विकास’ में –
पर मैं कहता ‘विकास’ उलझा है ‘करील’ की डाल में ||
‘विकार’ कितने भारत की धरती पर अब हैं पनप रहे-
‘प्रसून” ज़हरीले उग आये, ‘प्रेम-कमल के ताल’ में ||
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शनिवार, 7 सितंबर 2013

पौण्ड्रक (४)धर्म-जंजाल |


जब तक बहु प्रचार प्राप्त 'धर्म-दानवों' का विनाश नहीं होता और 

मुझे जीवन मिले, तब तक कभी कभी अपने भाव इस धारा में 

प्रवाहित रखूँगा ! साधारण मनुष्य के इस प्रकार के अपराध से कई 

सहस्र गुना(जितने इस के अनुयायी हैं उतना गुना) इस 'धर्म-दानव'

का दण्डनीय अपराध है !!

(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)     

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‘पोल’ खुल गयी, हो गया, है अब ख़स्ता हाल |
‘ईश्वर’ खुद को कह रहा, था रच कर जंजाल ||
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पिश्ता-काजू खा हुआ, है यह ‘मोटे पेट’ |
है ‘बाबा’ के  भेस में, ‘पूँजी धारी सेठ’ ||
क्या लेना है ‘नाम’ से, कुछ भी रख लो नाम |
चलो, नाम भी रख लिया, मानो ‘झाँसाराम’ ||
मालिक ‘दसियों अरब’ का, है ‘कुबेर का लाल’ |
‘ईश्वर’ खुद को कह रहा, था रच कर जंजाल ||१||


इस ‘कूकर’ के गले में, ‘सोने की जंजीर’ |
‘माया’ में उलझा हुआ, बनता ‘सन्त-प्रवीर’ ||
लोग हमारे देश के, अब भी कुछ कंगाल |
‘खून-पसीना’ बहा कर, खाते ‘रोटी-दाल’ ||
एक तरफ़ यह ‘पौण्ड्रक’, खाता था ‘तर माल’ |
‘ईश्वर’ खुद को कह रहा, था रच कर ‘जंजाल’ ||२||


‘प्रसून” हद से गुजर कर, ‘सीमाओं’ को तोड़ |
जीत गया यह ‘दैत्य-नर’, शैतानों से होड़ ||
हर ‘पैशाचिक साधना’, का था यह ‘उस्ताद’ |
बोता ‘ज्ञान के खेत’ में, यह ‘ज़हरीली खाद’ ||
फांस रहा था ‘मछलियाँ’, ‘धर्म की बंछी’ डाल |
‘ईश्वर’ खुद को कह रहा, था रच कर जंजाल ||३||


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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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