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गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (१)ईश्वर-वन्दना (घ)तुम्हीं ‘प्रेरणा-स्रोत’


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बन कर ‘उज्जवल चन्द्रमा’, जिसमें नहीं ‘कलंक’ |
तुम हरते हो ‘घोर’ से, ‘रातों’ के ‘आतंक’ ||
‘काले-गोरे’ सब तुम्हें, लगते एक समान |
‘कुरूप-सुन्दर’ से मिलो, जो भी धरता ‘ध्यान’ ||
देते सबको ‘प्रेम’ तुम, ‘राजा’ हो या ‘रंक’ |
तुम हरते हो ‘घोर’ से, ‘रातों’ के ‘आतंक’ ||१||

भक्त तुम्हारा सुधरता, हो कितना भी ‘नीच’ |
तुम दिखलाते ‘रास्ता’, ‘बीहड़ वन’ के बीच ||
‘कामी’ को ‘वैराग्य’ दे, ‘अज्ञानी’ को ‘ज्ञान’ |
‘अन्धे’ को तुम ‘नेत्र’ दे, करते हो ‘उत्थान’ ||
कृपा तुम्हारी ‘खग’ उड़े, ले कर ‘घायल पंख’ |
तुम हरते हो ‘घोर’ से, ‘रातों’ के ‘आतंक’ ||२||



हो ‘जड़’ में ‘ऊर्जा’ तुम्हीं, हो ‘चेतन’ में ‘प्राण’ |
हर ‘बल’ में हो ‘शक्ति’ तुम, हो ‘पीड़ित’ के ‘त्राण’ ||
‘धातु’-‘काठ’ या ‘मृदा’ का, हो कैसा भी ‘साज़’ |
‘थाप’, ‘साँस’ या ‘चोट’ से, तुम बनते ‘आवाज़’ ||
‘वंशी’ सूखे ‘बाँस’ की, या कोई ‘मृत शंख’ |
तुम हरते हो ‘घोर’ से, ‘रातों’ के ‘आतंक’ ||३||




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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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