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सोमवार, 4 मार्च 2013


मुकुर (ठ)दरारें (१)टूटते व्यवहार



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आपस के व्यवहार टूटते देखे हैं |
नाते’ रिश्तेदार टूटते देखे हैं ||
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पैसों से बिक गये ‘हीर औ राँझे’ हाँ !
सपनों में दिखते ‘सोना, चाँदी, पैसा ||
इस ‘पैसे के लोभ’ के निठुर दबावों से-
क़समें खा कर, ‘प्यार’ टूटते देखे हैं ||
आपस के व्यवहार टूटते देखे हैं |
नाते’ रिश्तेदार टूटते देखे हैं ||१||

‘विश्वासों के काँटों’ में चलते राही |
बड़ी कठिन इन काँटों में आवाजाही ||
इतनी ‘चुभन’ मिली है, छलनी पाँव हुये-
रो रो हो कर ज़ार टूटते देखे हैं ||
आपस के व्यवहार टूटते देखे हैं |
नाते’ रिश्तेदार टूटते देखे हैं ||२||

‘मिलन’ की बातें सुनीं, हुये हम दीवाने |
‘उल्लासों’ से गूँथे प्रेम से पहनाने ||
बड़ी बेरहम चोट वक्त के हाथों की-
वे ‘फूलों के हार’ टूटते देखे हैं ||
आपस के व्यवहार टूटते देखे हैं |
नाते’ रिश्तेदार टूटते देखे हैं ||३||

डूब रही ‘सभ्यता-नाव’, मँझधारों में |
कई ‘मसीहा नाविक’ लगे सुधारों में ||
“प्रसून”, ‘भौतिक वित्त्वाद-तूफ़ानों’ में-
‘नावों के पतवार’ टूटते देखे हैं ||
आपस के व्यवहार टूटते देखे हैं |
नाते’ रिश्तेदार टूटते देखे हैं ||४||
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About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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