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शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (13) मानवीय पशुता ! (झ) काम-जाल

 (सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)

                                                  
डाल के चारा लोभ का, धनिकों ने लीं पाल !
फँसी प्रीति की मछलियाँ, कई काम  के जाल !!
अपना हीरा लाज का, बेचा सस्ते मोल !
ऐसी दौलत खो रहीं, जिसकी कहीं न तो !!
ग्राहक रीझें सौंपती, हैं सोलह श्रृंगार !
सजे हैं इन के नाच से, क्लब, कैशीनो, बार !!
कलियुग में कलि ने चली, कुटिल कुचाली चाल
फँसी प्रीति की मछलियाँ, कई काम के जाल !!1!!
नृत्य-कला जो खोलती, थी मन की हर गाँठ !
अब केवल तन-भो के, पढ़ा रही है पाठ !!
अभिनेताअभिनेत्रियाँ, देते ऐसी सीख !
युवक-युवतियाँ’ माँगते, रति के धन की भीख !!
मैली कीचड़ में सने, मोती और प्रवाल !
फँसी प्रीति की मछलियाँ, कई  काम के जाल !!2!!
काम-कला में निपुण ये, कुछ उर्वशियाँ आज !
भरती हैं उत्तेजना, कर पुरुषों पर राज !!
कलुष कल्पना से सदा, पौरुष होता क्षीण |
जीवन के सुर सो गये, मानो टूटी बीन ||
या बडवानल से जलें, सुभग कमल के ताल !
फँसी प्रीति की मछलियाँ, कई काम के   जाल !!3!!

बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (13) मानवीय पशुता ! (ज) कूकर-बिलाव

 (सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)

वाह ! वाह !! क्या खूब है, यह युग का बदलाव !
हारे हैं इंसान से, कूकर और बिलाव !!
कैट-वाक  में  देखियेललनाओं  का  रूप !
खुले खुले मैदान कीकामुक कामुक धूप !!
छुपे हुये हर हर अंग पर, दो अंगुल का चीर !
भर भर अंजुलिपीजिये, खुला रूप का नीर !!
हर आयु में झेलिये, यौवन का सैलाव !
हारे हैं इंसानसे, कूकर और बिलाव !!1!!
फैशन टी.वी. देख कर, कामुक हुये किशोर !
काम की मैली गर्द से, गँदला उम्र का भोर !!
कच्ची कच्ची आयु में, कली बनी है फूल !
यौवन के सुख ढूँढती, अपना बचपन  भूल !!
तट से पहले  डूबती, बीच धार में नाव !
हारे  हैं  इंसान सेकूकर और बिलाव !!2!!


इन चित्रों से कर रही, पशुता मन  में  वास !
बचपन से पहले जगी, है यौवन की प्यास !!
जंघा-जघन-प्रदेश  तकहुये  आवरण-हीन !
दर्शक गण का इन्होंने, लिया चैन-सुख छीन !!
मानस-सरवर बन गया, है मैला तालाव !
हारे  हैं  इंसान से, कूकर और बिलाव !!3!!

मंगलवार, 28 अक्तूबर 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (13) मानवीय पशुता !(छ) काम-नाट्य


 (सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)

                                           
                                                                                                                     
  ‘मानवता को  छल  रहा, फिल्मों  का  संसार |
  पशु-संस्कृति का हो रहा, बिलकुल खुला प्रचार ||
  टी.वी. चैनल आजकल, कमा रहे हैं नाम |
उगल  रहे हैं वासना, ब्रेक-डांस के नाम ||
दाम कमाने के लिये, चिड़ियाँ आधी नग्न |
 सौदा कर के हुस्न का, स्वर्ण-रजत में मग्न ||
कितना उच्छ्रंखल हुआ, रस-राजा श्रृंगार  !
पशु-संस्कृति का हो रहा, बिलकुल खुला प्रचार ||1||
गुप्त ज्ञान खुलने लगा, सरे आम हर ओर !
लाज का पर्दाहटा कर, परियाँहर्ष-विभोर !!
निर्धन बेबस नारियाँ, हो पूँजी की दास !
अपना सब कुछ बेचतीं, जो कुछ उन के पास !!
ब्लू फिल्मों का गरम है, काला चोर बज़ार  !
पशु-संस्कृति का हो रहा, बिलकुल खुला प्रचार !!2!!
सुख के साधन ढूँढने, पाने भौतिक भोग !
आये दिन हैं पालतीं, धनी बनेंयह रोग’ !!
अंग-प्रदर्शन के नये, करतीं कई कमाल !
नर्तकियाँ धनवान हैं, खूब कमा कर माल !!
ममता-मूर्ति छू रही, ऊँची पाप-कगार !
पशु-संस्कृति का हो रहा, बिलकुल खुला प्रचार !!3!!

 

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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