(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
मित्रों !आज अचानटवर्क खाली मिलाने पर आप के सामने उपस्थित हूँ, इस ग्रन्थ में जोड़े गये एक नये नए सर्ग के साथ | सुधी पाठाक इसे पढ़ कर सुझाव दें !
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=====================देखो हे परमात्मा !, हुआ बहुत विकराल |
‘कालकूट विष’ उगलता, यह ‘कलियुग का काल’ ||
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’कलह-द्वन्द’ विप्लव बने,’विनाश’ से संयुक्त ||
अच्छे लोगों में घटा, ‘भीतर का विश्वास’ |
यह ‘समाज का महानद’, हुआ घृणा-भय युक्त |
डरे और सहमे सभी, खो कर हर ‘उल्लास’ ||
देख ‘मकर’ को ज्यों डरें, ‘सारस’ और ‘मराल’ |
‘कालकूट विष’ उगलता, यह ‘कलियुग का काल’ ||१||
‘शेर’
शौर्य को खो चले, नहीं रहे ‘स्वच्छन्द’ |
‘सोने’
की ‘पॉलिश’ चढ़े, ‘पिंजड़े’ में हैं बन्द ||
बिका
‘पराक्रम’ ‘कौड़ियों’ में, है उन का आज |
चतुर
धूर्त कुछ ‘भेड़ियों’, का है उन पर ‘राज’ ||
‘कपट-छद्म-छलप्रबल-खाल’, हाबी हुये ‘श्रृगाल’ |
‘कालकूट विष’ उगलता, यह ‘कलियुग का काल’ ||२||
‘प्रकृति
प्रिया’ की ‘गोद’ में, पलते ‘मानव-पूत’ |
किन्तु
उसी के लिये वे, देते ‘कष्ट’ अकूत ||
‘प्रकृति’
तुम्हारा ‘रूप’ है, उस में इतने ‘घाव’ !
कर न
थका यह ‘आदमी’, होअया अजब ‘बदलाव’ ||
‘कुबेर’ का ऐसा पड़ा, है ‘लालच का जाल’ |
‘कालकूट विष’ उगलता, यह ‘कलियुग का काल’ ||३||