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शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (१)ईश्वर-वन्दना (क)काल-विष

(सारे चित्र  'गूगल-खोज' से साभार)


मित्रों !आज अचानटवर्क खाली मिलाने पर आप के सामने उपस्थित  हूँ,  इस ग्रन्थ में जोड़े गये एक नये  नए सर्ग के साथ | सुधी पाठाक इसे पढ़ कर सुझाव दें !  
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=====================देखो हे परमात्मा !, हुआ बहुत विकराल |
‘कालकूट विष’ उगलता, यह ‘कलियुग का काल’ ||
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’कलह-द्वन्द’ विप्लव बने,’विनाश’ से संयुक्त ||
अच्छे लोगों में घटा, ‘भीतर का विश्वास’ |
यह ‘समाज का महानद’, हुआ घृणा-भय युक्त |
डरे और सहमे सभी, खो कर हर ‘उल्लास’ ||
देख ‘मकर’ को ज्यों डरें, ‘सारस’ और ‘मराल’ |
‘कालकूट विष’ उगलता, यह ‘कलियुग का काल’ ||१||
‘शेर’ शौर्य को खो चले, नहीं रहे ‘स्वच्छन्द’ |
‘सोने’ की ‘पॉलिश’ चढ़े, ‘पिंजड़े’ में हैं बन्द ||
बिका ‘पराक्रम’ ‘कौड़ियों’ में, है उन का आज |
चतुर धूर्त कुछ ‘भेड़ियों’, का है उन पर ‘राज’ ||
कपट-छद्म-छलप्रबल-खाल’, हाबी हुये ‘श्रृगाल’ |
‘कालकूट विष’ उगलता, यह ‘कलियुग का काल’ ||२||
‘प्रकृति प्रिया’ की ‘गोद’ में, पलते ‘मानव-पूत’ |
किन्तु उसी के लिये वे, देते ‘कष्ट’ अकूत ||
‘प्रकृति’ तुम्हारा ‘रूप’ है, उस में इतने ‘घाव’ !
कर न थका यह ‘आदमी’, होअया अजब ‘बदलाव’ ||
‘कुबेर’ का ऐसा पड़ा, है ‘लालच का जाल’ |
‘कालकूट विष’ उगलता, यह ‘कलियुग का काल’ ||३||

 


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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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