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मंगलवार, 28 मई 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (ड) मीनार(विकास की खोखली ऊंचाई ) (५)चकाचौंध (i) '‘चमक-दमक’ की होड़ |

इस सर्ग में सारी रचनाएँ नयी हैं जो कि अविधा शब्द-शक्ति में रची गयी हैं| इन सभी रचनायें आज की वर्तमान परिस्थितियों को अपने आँचल में समेटे हुये हैं | आखिर यह खूनी खेल के क्या क्या कारण हो सकते हैं , इस की समीक्षा का प्रयास है |  (सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार) 
  
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====================== ‘चकाचौंध’ में  हो  गये, ’नयन-पटल’  बेकार |
‘तेज़  रोशनी’  में  हुआ,  है  ‘अन्धा’  संसार ||
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‘चमक-दमक’ की  होड़  में, धुँधली  हुई  है ‘प्रीति’ |
‘नायक’ दौलत से बिके, बिकी  है  महँगी  ‘नीति’ ||
बंगलों  ‘ए..सी. - भवन’  में,  बैठे  हैं  जो  लोग |
‘ऐश’  में  डूबे  रच  रहे,  ‘विकास  के  आयोग’ ||
‘आम आदमी’ के लिये, कहाँ उन के दिल में ‘प्यार’ |
‘तेज़  रोशनी’  में  हुआ,  है  ‘अन्धा’  संसार  ||१||

 
‘हर भूखे’  को  ‘रोटियाँ’,  'हाथ - हाथ’  को  काम |
‘वादे’  झूठे   हो  गये,   ‘सोच’  हुई   नाकाम  ||
‘युवा-शक्ति’ की  क्या कहें,  ‘कुण्ठित छुरी’-समान |
बिलकुल  निष्फल  हो  गया, उनका  ‘सारा ज्ञान’ ||
थके  हैं  ढो कर ‘शीश’ पर,  ‘उपाधियों  का भार’ |
‘तेज़  रोशनी’  में  हुआ,  है  ‘अन्धा’  संसार  ||२||


‘प्रजा’  पूत  की  भाँति  है,  ‘राजा’  जाये  भूल |
‘उदर-पूर्त्ति’  के  लिये  ही,  टैक्स  करे  वसूल ||
‘भरे  पेट’  यदि  बाप  हो,  ‘बेटा’  ‘खाली  पेट’ |
‘ममता  के  सम्बन्ध’  का,  होगा  ‘मटियामेट’ ||
‘मर्यादा’  तज  पुत्र  भी,  करता  कभी  ‘प्रहार’  |
‘तेज़  रोशनी’  में  हुआ,  है  ‘अन्धा’  संसार  ||३||

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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