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‘लोभ की लपटें’ उठ रहीं, ‘स्वार्थ के अंगार’ |
‘भट्टी-भ्रष्टाचार’ की, ‘ईंधन-मलिन विचार’ ||
‘लोभ की लपटें’ उठ रहीं, ‘स्वार्थ के अंगार’ |
‘भट्टी-भ्रष्टाचार’ की, ‘ईंधन-मलिन विचार’ ||
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‘मल-करकट के ढेर’ में, लगी हुई ज्यों आग
|
दिशा-दिशा दुर्गन्ध है, किधर चलें हम भाग
||
‘नफ़रत की चिनगारियाँ, छिटकीं चारों ओर |
झुलसी
सारी ‘प्रीति की, बँधी हृदय से डोर’ ||
‘धुआँ’ ‘दर्द-दुःख-द्वन्द’ का, लपेट
अत्याचार |
‘भट्टी-भ्रष्टाचार’ की, ‘ईंधन-मलिन विचार’ ||१||
‘धन की तृष्णा’ दानवी, हाथ में
‘पाप-मशाल’ |
‘आग’ लगाने को चली, बन् कर आयी ‘काल’
||
‘प्रेम के वन’ में जल गये, ‘पुण्य के
मोर चकोर’ |
जले
जले हैं ‘आचरण’,
चारों ओर है शोर ||
झुलसे ‘कोमल
भाव’ सब,
‘मानवता-आधार’ |
‘भट्टी-भ्रष्टाचार’ की, ‘ईंधन-मलिन विचार’ ||२||
मैं बन जाऊँ आज ही, ‘कारूँ’ या कि ‘कुबेर’ |
सोच
रहा हर ‘निठल्ला’, रंच लगे मत देर ||
जहाँ
मिले जिस हाल में, पा कर बनो ;बहाल’ |
जनता या सरकार का, लूटो ‘मुफ़्त का माल’ ||
मत लौटाओ हड़प
लो, ‘सारा नक़द-उधार’ |
‘भट्टी-भ्रष्टाचार’
की, ‘ईंधन-मलिन विचार’ ||३||
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