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मंगलवार, 9 अप्रैल 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (छ) ‘भट्टी-भ्रष्टाचार’(१) ‘नन्दन वन जल उठा’


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‘लोभ की लपटें’ उठ रहीं, ‘स्वार्थ के अंगार’ |
‘भट्टी-भ्रष्टाचार’ की, ‘ईंधन-मलिन विचार’ ||


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‘मल-करकट के ढेर’ में, लगी हुई ज्यों आग |
दिशा-दिशा दुर्गन्ध है, किधर चलें हम भाग ||
‘नफ़रत की चिनगारियाँ,  छिटकीं चारों ओर |
झुलसी  सारी ‘प्रीति की, बँधी हृदय से डोर’ ||
‘धुआँ’ ‘दर्द-दुःख-द्वन्द’ का, लपेट अत्याचार |
‘भट्टी-भ्रष्टाचार’ की, ‘ईंधन-मलिन विचार’ ||१||



‘धन की तृष्णा’ दानवी, हाथ में ‘पाप-मशाल’ |
‘आग’ लगाने को चली, बन् कर आयी ‘काल’ ||
‘प्रेम के वन’ में जल गये, ‘पुण्य के मोर चकोर’ |
जले  जले  हैं  ‘आचरण’,  चारों ओर  है  शोर ||
झुलसे  ‘कोमल भाव’  सब,  ‘मानवता-आधार’ |
‘भट्टी-भ्रष्टाचार’  की, ‘ईंधन-मलिन  विचार’ ||२||


मैं बन जाऊँ आज ही, ‘कारूँ’ या कि ‘कुबेर’ |
सोच रहा  हर ‘निठल्ला’, रंच लगे मत देर ||
जहाँ मिले जिस हाल में, पा कर बनो ;बहाल’ |
जनता  या सरकार का, लूटो ‘मुफ़्त का माल’ ||
मत  लौटाओ  हड़प  लो,  ‘सारा  नक़द-उधार’ |
‘भट्टी-भ्रष्टाचार’  की,  ‘ईंधन-मलिन  विचार’ ||३||


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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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