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बुधवार, 29 मई 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (ड) मीनार(विकास की खोखली ऊंचाई ) (५)चकाचौंध (ii) ‘ऊँची उड़ान’ |



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‘चन्दा सूरज’ की तरफ़,   है इस का ‘अभियान’ |                                                         ‘प्रगति के पँछी’ ने  बहुत, ऊँची  भरी   ’उड़ान’  ||

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भूल  गया   यह  ‘बावला’,   जल  जायेंगे  ‘पंख’ |
‘परों’ में  इस  के ‘पाप’  के, कितने छिपे ‘कलंक’ ||
‘खूनी पंजे’  हैं  तथा,   खूनी   इस   की  ‘चोंच’ |
‘चंगुल’ में  इस  ने  लिया, ‘मानवता’ को दबोच  ||
‘प्रगति’ नहीं यह ‘सिंधु’ में, ‘ज्वार’ काउठा ‘उफ़ान’ |
‘प्रगति  के  पँछी’  ने बहुत, ऊँची भरी   ’उड़ान’  ||१||


‘समानता’ के लिये  उफ़,  इतना  बढ़ा  ‘जुनून’ |
‘हक़’  पाने  के  लिये  यों,   बहा रहे  हैं खून  ||
‘इन्कलाब’ के नाम पर, यह  ‘नफ़रत’ की आग’ |
उगल  रहे हैं  ‘अज़दहे’,  हे  ‘समाज’  तू जाग !! 
‘समाधान’ के लिये अब, कर  तू  ‘यत्न-विधान’ |
‘प्रगति के पँछी’  ने बहुत, ऊँची  भरी   ’उड़ान’  ||२||


‘जलते  हुये  सवाल’ कुछ,  जला  रहे  ‘क़ानून’ |
इंसानों   को   गोलियों,   से   देते   हैं  भून ||
इन  घटनाओं  के  लिये,  कौन  है  जिम्मेदार |
जान  न  पाये  ‘राज - पद’,  ‘ऊँचे  ओहदेदार’ ||
कोई  बतलाये  हमें,   करेगा   कौन  ‘निदान’ |
‘प्रगति के पँछी’ ने बहुत,  ऊँची भरी   ’उड़ान’  ||३||


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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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