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बुधवार, 5 दिसंबर 2012

मुकुर(यथार्थवादी त्रिगुणात्मक मुक्तक काव्य)(ज)मन का रेगिस्तान |(एक भीषण परिवर्तन) (२)मन फिर भी रह गये ‘मरुस्थल’| (एक परिवाद)


लोग 'प्रेम' का सही अर्थ समझें | 'ऑनर-किलिंग' एक 'पुरानी तानाशाही' झूठी शान है |प्राचीन काल से स्वयम्बर प्रथा रही है | जिसमें 'जातिवाद' या 'वर्ग-भेद' के लिये स्थान नहीं था | सच्चे प्रेम का अनादर दानवत्व है | प्रेम ईश्वरीय दें है | यही समझाना इस रचना का उद्देश्य है | 


(सारे चित्र 'गूगल-खोज से उद्धृत)

‘प्यार’ के इतने ‘बादल’ बरसे-
‘मन’ फिर भी रह गये ‘मरुस्थल’ |
युगों युगों से ‘प्रेम-कथायें’ |
रहीं जगाती ‘मनो व्यथायें’ ||
फिर भी ‘प्रेम’ अभी तक सोया -
ऐसा क्यों है हमें बतायें !!
कितने ‘कंकड़’ पड़े ‘झील में-
फिर भी नहीं है कोई ‘हलचल’ |
प्यार’ के इतने ‘बादल’ बरसे-
‘मन’ फिर भी रह गये ‘मरुस्थल’ ||१||

 

युगों युगों से हमें सतावें |
‘तूफ़ानों’ के ‘कुटिल छलावे ||
बदल चुकी कितनी ‘पतवारें’-
टूट चुकी हैं कितनी ‘नावें ||
और थक चुके हैं ‘ये नाविक’-
हैं हताश ‘हाथों के सम्बल’ ||
प्यार’ के इतने ‘बादल’ बरसे-
‘मन’ फिर भी रह गये ‘मरुस्थल’ ||२||
 
‘कई रूढियाँ’ बनीं हैं ‘पातक’ |
‘कई रिवाज़’ हो गये ‘घातक’ ||
‘कुलीनता की आन’ बचाने-
मार दिये हैं ‘प्रेम के चातक’ ||
‘झूठी शान’ की ‘आग’ में जलते-
‘कोमल कोमल प्रेम के कमल’ ||
प्यार’ के इतने ‘बादल’ बरसे-
‘मन’ फिर भी रह गये ‘मरुस्थल’ ||३||

‘धूल भरी आँधियाँ’ चली हैं |
‘उपवन’ को इस क़दर खली हैं ||
हर “प्रसून” की ‘पंखुड़ियों’ में-  
बड़ी किसकती ‘कसक’ पली है ||

‘बिडम्बना’ है यह ‘परिवर्तन’-
दुखदायी है ‘समय की हलचल’ ||
  प्यार’ के इतने ‘बादल’ बरसे-
‘मन’ फिर भी रह गये ‘मरुस्थल’ ||४||

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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