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सोमवार, 13 मई 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (ठ) आधा संसार | (नारी उत्पीडन के कारण) (१) वासाना-कारा (८) कपट-विवाह |


ग्रन्थ-क्रम में पिछली तीन रचनाओं से कुछ 'वासना-रोगी' बिगड़े दिल अमीर शहजादों द्वारा ,विवाह का झाँसा देकर ज़रूरतमन्द कंगाल भोली कमसिन- 
'अच्छे बुरे', 'उंच-नीच' से  अनजान किशोरियों -बालाओं को फांस कर उन्हें बरबाद कर के यौन-अपराधों की और संकेत किया गया है | 'सफ़ेद-पोश शराफत' की आड़ में क़ानून की आड़ में होने वाले ये 'यौन-अपराध' भारत के लिये घातक हैं |आये दिन  'किशोरी-आत्महत्या-गर्भ-पात और 'बालाकिशोरी हत्याओं  की  घटनाओं की  खबरें पढने को मिल जाती हैं |    (सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)


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कुछ धनवानों की ‘कलुष कुनीति’ की सह मार |
निर्धन  बस्ती  में  दुखी,  है  आधा  संसार  ||


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‘अनाचार-वन’   में   बसे,   ‘दुराचार   के   मोर’ |
‘पश्चिम जगत की सभ्यता',  वाले  धनिक किशोर ||
जाते  ‘मैली  बस्तियों’,   में   ले   ‘काम-कुजाल’ |
‘रति-हिरणी-आखेट’   हित,  ये  ‘कुबेर  के  लाल’ ||
खोज  ‘नवेली  -  चुलबुली,   ‘बालायें   सुकुमार’  |
निर्धन  बस्ती  में  दुखी,   है  आधा  संसार  ||१||


दिखा ‘लोभ-भय’ या कोई, ‘आकर्षण’,  ‘मन’  खींच |
‘काम-कुरस’ से  ‘बेलि-रति,  की  जड़’  देते  सींच ||
‘कपट-डोर’,  ‘रति-रूप’  की,   उड़ती  ‘काम-पतंग’ |
उच्छ्रंखल   बन्धन-रहित,  इन  का  ‘धूर्त अनंग’ ||
करते  हर  ‘आपत्ति’  का,   ये  ‘कामी’  उपचार  |
निर्धन  बस्ती  में  दुखी,   है  आधा  संसार  ||२||


कहते  हैं,  “हम  तुम्हीं  से,  ‘प्रिये’  करेंगे  ब्याह |
और  इस तरह  से  इन्हें, मिलती  ‘रति की राह’ ||
‘कामी’ जी भर  भोग ‘सुख’,  उस  को  देते  छोड़ |
ज्यों पी कर, छक  कर  कोई,  ‘सुरा-पात्र’ दे तोड़ ||
रोतीं  अपना   ले   लुटा,   पिटा   ‘सुभग-श्रृंगार’ |
निर्धन  बस्ती  में  दुखी,   है  आधा  संसार  ||३||

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झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (ठ) आधा संसार | (नारी उत्पीडन के कारण) (१) वासाना-कारा (७) रति-चोर |


आज 'मातृ-दिवस' के अवसर पर 'मात्र-शक्ति' को शुभ कामना ! सर्ग  की सातवीं इस रचना में च्रीछिपे  शराफत का चोला उतार फेंक कर भोली भूख से मज़बूर बालाओं किशोरियों को झूठ प्रेम-जाल में फां कर  विवाह का झांसा दे कर बर्वाद करने वाले नराधमों की और संकेत है |
(सारे चित्र 'गूगल-खोज'से साभार)
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बेच रहीं ‘तन’ नारियाँ, भूखी नक़द-उधार |
घिरा ‘अभावों’ से बहुत, है ‘आधा संसार’ ||
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‘कंगालों  की  बस्तियों’,  में   जाते   हैं  नित्य |
‘कारूँ-कुबेर-कु-सुत कुछ’,  करते  ‘कलुष  कु-कृत्य’ ||
‘रातों’   में    यों   घूमते,   जैसे   कोई  ‘चोर’ |
ढूँढ   ‘कुमारी  छोरियाँ’,   ये  ‘मन चले  किशोर’ ||
खरीद   कर  ‘मज़बूर तन’,  शान्त  करते  ‘ज्वार’ |
घिरा  ‘अभावों’  से  बहुत,  है  ‘आधा  संसार’ ||१||


और  कई   तो  ‘काइयाँ’,  ‘जालसाज़  ठग - धूत’ |
‘जाल’  बिछ  कर  ‘प्रेम’  का,  ‘धवानों  के  पूत’ ||
‘मीठे मीठे वचन’   कह,  बुला   के  अपने  पास |
दिखा  ‘प्रीति का स्वप्न-सुख’,  ‘बालाओं’ को फांस ||
कहते   प्यारी  हम  तुम्हें,  देंगे  ‘मन  का प्यार’ |
घिरा  ‘अभावों’  से  बहुत,  है  ‘आधा  संसार’ ||२||


कई दिनों  तक  खेलते,  ‘कुटिल’  ‘काम की केलि’ |
होंती है  जब  ‘फल - वती’,  ‘कौमार्य  की  बेलि’ ||
तब  ये  ‘पामर’  ‘रूपसी’,  से   लेते  मुहँ  मोड़  |
‘दीन दशा’  में  कलपती,   देते   उस को  छोड़  ||



पछताती   ‘मँझधार’   में,    बेचारी    ‘लाचार’  |
घिरा  ‘अभावों’  से  बहुत,  है  ‘आधा  संसार’ ||३||

 

ब्लॉग-'प्रसून' में मात्री-दिवस पर विशेष प्रस्तुति 

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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