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सोमवार, 27 मई 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (ड) मीनार(विकास की खोखली ऊंचाई )(४) विष-नाग


''प्रदूषणों के विषैले प्रभाव' के कारण यह 'सुन्दर प्रगति'  भी   ज़हरीली नागिन हो गयी है | धन का लोभ भी आचरण में एक बदनुमा दाग है |
(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)

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बिना ‘शान्ति’ के व्यर्थ हैं,  ‘सुख के सभी विधान’ |
‘आचरणों  से  हीन’   हैं,  वृथा  सभी  ‘उत्थान’ ||
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सारे  जग  में  हो  गयी,  ‘प्रदूषणों  की  भीड़’ |
कितने  गँदले  हो  गये,  हैं  ‘संस्कृति के  नीड़’ ||
‘प्रगति’ बहुत अनिवार्य है,  और  ‘समय की माँग’ |
मैला करने  का  इसे,  क्यों  रचते  हम  ‘स्वाँग’ ||
‘पर्यावरण’  की  टूटती,  ‘साँस’  में  फूको  ‘प्राण’ | 
‘आचरणों  से हीन’  हैं,  वृथा  सभी  ‘उत्थान’ ||१||
 
काट  रहे   वन   खोदते,  ‘ऊँचे  अडिग  पहाड़’  |
चबा रही  ‘सौन्दर्य’  को,  है  ‘लालच की दाढ़’  ||
‘प्रकृति-प्रिया’ के  कर दिये,  ‘केश-वेश’ विच्छिन्न’ |
मिटा दिये  ‘तन’ के सभी,  ‘सुभग-मनोरम चिन्ह’ ||
‘धन की भूख’  ने  खा  लिये,  ‘हरे  भरे उद्यान’ |
‘आचरणों  से हीन’  हैं,  वृथा  सभी  ‘उत्थान’ ||२||

  

जल–थल–गगन में  भर  गयी,  है  मैली  ‘दुर्गन्ध’ |
‘शोर’ से ‘मलय-समीर’  के,  घुटे  हैं  ‘मीठे छन्द’ ||
‘समय’  से पहले  ‘प्रलय’  के,  लगते  हैं  आसार |
‘तन-मन-आत्मा’  से  हुआ,  है  ‘रोगी’  ‘संसार’  ||
‘कृत्रिमता’  से  मिट  गयी,   ‘नैसर्गिक  पहँचान’ |
‘आचरणों  से हीन’  हैं,  वृथा  सभी  ‘उत्थान’ ||३||
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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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