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गुरुवार, 11 अक्तूबर 2012

मुकुर(यथार्थवादी त्रिगुणात्मक मुक्तक काव्य)(ख) झरोखे से((५) झाँक के नीचे,‘झाँकी’ देख ! (ब्याजोक्ति)


कितनी विसंगतियाँ हैं,संसार में !सहन नहीं होता नागफनी का घना 


जंगल | फिर भी हर देश महान है | 'जो है, वह ठीक है,हमें क्या !' के सूत्र 

पर चल रहा है संसार | विचार-परिवर्तन साहित्यकार कर सकता है | 

( सारे चित्र 'गूगल-खोज' से उद्धृत ) 




(५) झाँक के नीचे,‘झाँकी’ देख !



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खिड़की से ‘एकाकी’ देख !

झाँक के नीचे, ‘झाँकी’ देख !!



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प्यारे प्यारे बाग मनोहर |

‘क़ुदरत’ की ‘बेदाग़ धरोहर’ ||

और कहीं पर निर्मल जल के-

गहरे-उथले कई सरोवर ||

‘उनकी काया’ छू कर महकी-

पवन सुहानी आती देख !

खिड़की से ‘एकाकी’ देख !

झाँक के नीचे, ‘झाँकी’ देख !!१!!



‘भँवरों की टोली’ का गुन्जन |

विविध पंछियों का ‘कल-कूजन’ ||

‘मिली जुली आवाज़ों में’ है-

‘शहनायी’ से गूँजे ‘उपवन’ ||

अरे,अचानक कोयल चहकी-

‘मस्ती में मदमाती’ देख !!

खिड़की से ‘एकाकी’ देख !

झाँक के, नीचे ‘झाँकी’ देख !!२!!




कभी कभी वह ‘पवन का झोँका’ |

हमें अचानक देता धोखा ||

लेता बड़ी ‘अरुचिकर साँसें’-

घुटता ‘दम अपना,’ ‘अपनों’ का ||

हो कर ‘मैली’,‘पवन’ है ‘बहकी’-

हमको नहीं सुहाती देख !!

खिड़की से ‘एकाकी’ देख !

झाँक के’ नीचे ‘झाँकी’ देख !!३!!



बदला बहुत ‘रूप’ ‘अवनी’ का |

रहा नहीं है वह अब ‘नीका’ ||

धूल उड़ रही मैली मैली-

उठता हुआ धुआँ चिमनी का ||

‘परिवर्तन की आग’ में ‘दहकी’-  

‘कोई दिशा’ न भाती देख !!

खिड़की से ‘एकाकी’ देख !

झाँक के, नीचे ‘झाँकी’ देख !!४!! 




यह ‘विकास’ का ‘अजब तरीका’ |

‘हास प्रकृति का’ किया है फीका ||

‘धूल के गुब्बारों’ से गुज़री-

‘मैला’ हो ज्यों ‘रूप परी का’ ||

‘फ़ीकी’ है ‘मुस्कान सुबह की’-

‘शाम’ न ‘रंग जमाती’ देख !!

खिड़की से ‘एकाकी’ देख !

झाँक के’ नीचे ‘झाँकी’ देख !!५!!





चारों ओर मकान बन गये|

‘विकास की पहँचान बन गये ||
बाग बगीचे सभी कट गये-

कई सूख बेजान बन गये ||

अब न कहीं भी ‘प्यारी सब की’-

वह कोयलिया गाती देख !

खिड़की से ‘एकाकी’ देख !

झाँक के नीचे, ‘झाँकी’ देख !!६!!






वह कूड़े का ढेर पड़ा है |

‘इस’ के,’उस’ के द्वार पड़ा है ||

भिनक रही हैं खूब मक्खियाँ-

देख के, होता खेद बड़ा है ||

ढेर पे,कुत्ते के संग,सबकी-

मैया गैया खाती देख !!

खिड़की से ‘एकाकी’ देख !

झाँक के नीचे, ‘झाँकी’ देख !!७!!



‘पाप’ का एक ‘जूनून’ देखो !

‘मानवता’ का ‘खून’ देखो !!

किसी ‘कुँवारे गर्भ’ से उपजा-

मृत ‘नवजात “प्रसून”’ देखो!!

दया हीन थी जननी उसकी-

बात यह हमें रुलाती देख !

खिड़की से ‘एकाकी’ देख !

झाँक के नीचे, ‘झाँकी’ देख !!८!!







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About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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