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शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (ज)स्वर्ण-कीट) (२)रिश्तों का बाज़ार | ===============


(चित्र 'गूगल-खोज' से साभार) 


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जगे ‘कंस-रावण’ यहाँ, सोये ‘राम व श्याम’ |
‘वित्तवाद की प्रगति’ का कैसा मिला ‘इनाम’ ||
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‘अपहरण-अपराध’ अब, बने हुये ‘व्यवसाय’ |
‘न्याय’ छुपाकर मुहँ चला, पनप रहा अन्याय’ ||
‘दहेज़ के दुश्पाप’ ने, ‘प्रेम’ को लिया लपेट |
भोली भाली लडकियाँ, चढी हैं इसकी भेंट ||
‘स्नेहिल रिश्तों’ के लगे, महँगे महँगे ‘दाम |
‘वित्तवाद की प्रगति’ का कैसा मिला ‘इनाम’ ||१||



मन्दिर-मस्जिद या कोई,  गुरूद्वारे  व  मज़ार |
गिरिजाघर - दरगाह  हों,  बने  आज  बाज़ार || 
बने  ‘सियासत’  के  सभी, ‘अड्डे’  हैं  बे जोड़ |
‘शैतानों’  से   कर   रहे,  चुपके  से गठजोड़ ||
सारे ‘तीर्थ’  बन  गये, ‘ठगों’ के  आज मुकाम |
‘वित्तवाद की प्रगति’ का कैसा मिला ‘इनाम’ ||२||


‘खुदगर्ज़ी की डाल’  पर,  फलते  ‘फल- अपराध’ |
‘शोषण-पशु’  खा  कर  इन्हें,  घूम  रहे निर्वाध ||
रोई  ‘भारत  की  धरा’,  सूख   गये   हैं   नैन |
‘दिल  के  दर्दों’  को  नहीं,  कर  पाती है सहन  ||



पता  नहीं  इस  का  कभी,  क्या  होगा  परिणाम |
‘वित्तवाद की प्रगति’  का  कैसा  मिला  ‘इनाम’ ||३||


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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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