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मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (ट) ‘मानवीय पशुता’ | (६)काम नाट्य |


'ग्रन्थ-क्रम' में यह रचना बोलती है कि ब्लू फिल्म तथा सेंसर की छूट का अनुचित लाभ उठाने वाली कुछ फिल्में हद से गुजर रही है | संकेतों की बजाय सीधे आलिंगन चुम्बन आदि के प्रदर्शन कर के श्रृंगार रस का रूप घिनौना करे पाश्चात्य-संस्कृति का समर्थन कर के विनाश ही तो कर रही हैं | 'भारतीय नाट्य-शास्त्र' की ऐसी उपेक्षा 'भारतीय संस्कृति' की ही उपेक्षा है | चित्र  'यथार्थ' के मध्यम स्वरूप का प्रदर्शन करते हुये पोस्ट किये हैं |
(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार) 

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‘मानवता’ को  छल  रहा,  ‘फिल्मों  का  संसार’ | 
’पशु-संस्कृति’ का हो रहा, बिलकुल ‘खुला’ प्रचार ||


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कुछ  टी.वी. चैनल  हुये,  धन  के  बड़े  गुलाम |
‘ब्रेक डाँस’ के  नाम  पर,  उगल  रहे  ‘रति-काम’ ||
वित्त   कमाने  के   लिये,  नारी   ‘आधी नग्न’ |
‘सौदा’ कर  ‘नारीत्व’ का,  ‘स्वर्ण-रजत’ में  ‘मग्न’ ||
कितना  उच्छ्रंखल   हुआ,   ‘रस - राजा  श्रृंगार’  |
’पशु-संस्कृति’ का हो रहा, बिलकुल ‘खुला’ प्रचार ||१||


‘गुप्त ज्ञान’   खुलने   लगा,   सरेआम  हर ओर |
‘लाज का पर्दा’   हटा  कर,   ‘नारी’  ‘’हर्ष-विभोर’ ||
निर्धन  ‘बेबस  नारियाँ’,   हो   ‘पूँजी  की  दास’ |
अपना  ‘सब कुछ’ बेचतीं,  ‘जो कुछ’ उन के पास ||


‘ब्लू फिल्मों’  का  गरम  है,  ‘काला चोर बज़ार’  |
’पशु-संस्कृति’ का हो रहा, बिलकुल ‘खुला’ प्रचार ||२||


‘सुख  के  साधन’   ढूँढने,  पाने   ‘भौतिक भोग’ |
आये  दिन   हैं  पालतीं,  ‘धनी बनें’  यह  ‘रोग’ ||
‘अंग-प्रदर्शन’  के   नये,  करतीं   कई   ‘कमाल’ |
‘नर्तकियाँ’  धनवान  हैं,  खूब  कमा  कर  ‘माल’ ||
‘ममता - मूर्ति’  छू   रही,   ‘ऊंची  पाप - कगार’ |
’पशु-संस्कृति’ का हो रहा, बिलकुल ‘खुला’ प्रचार ||३||



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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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