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गुरुवार, 21 मार्च 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य (घ) दहशत (२) ‘चील झपट्टा’-‘बिच्छू डंक’ (उपमा-रूपक-प्रतीक)



होली की अग्रिम वधाई ! सब का जीवन सुखी हो सतरंगी हो !!
(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)



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मृग-छौने के अंक में, चुभता बिच्छू-डंक |

देखो ऐसे डस गया, ‘संस्कृति’ को आतंक ||



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‘आतंकों’ से काँपते, हैं जनता के पैर |
जैसे कोई ‘मेमना’, ‘वधिक’ से माँगे खैर ||
जनता ‘भय के ताल’ में, रही है ऐसे तैर |
जैसे ‘मछली’को हुआ, ‘मगरमच्छ’ से वैर ||

‘स्वतंत्रता के चाँद के, माथे’ चढ़ा ‘कलंक’ |
देखो ऐसे डस गया, ‘संस्कृति’ को ‘आतंक’ ||१||


आतंकी पनपे यहाँ, ‘कंटालों में शूल’ |
‘छल-बल’ से ‘हफ्ता तथा, ‘चन्दा’ रहे वसूल ||
‘शक्ति-प्रदर्शन’ के लिये, ल्कराते अत्याचार |
निर्दोषों को बेवजह, रहे हैं देखो मार ||
‘मन की गलियों’ में भरी, है ‘हिंसा की पंक’ |
देखो ऐसे डस गया, ‘संस्कृति’ को ‘आतंक’ ||२||



जिसका ‘डण्डा’ सबल है, उसे है पूरी छूट |
जिस पर भृकुटी तन गयी, ले वह उसको लूट ||
ज्यों ‘कपोत’ पर ‘चील’ ने, निठुर लगाई घात |
‘हिंसा’ के यों हो रहे, जन जन में उत्पात ||
‘जन-धन-शक्ति’ से धनी, ‘मानवता’ से रंक |
देखो ऐसे डस गया, ‘संस्कृति’ को ‘आतंक’ ||३||

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About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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