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बुधवार, 12 फ़रवरी 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (१)ईश्वर-वन्दना (ग) ‘कालयवन’ कुछ ‘पौण्ड्रक’ |

(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)

  
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गहन ‘शेष-शय्या-शयन’, से जग, ‘जग’ लख आज |
पिघलो हे ‘हरि’ ! ‘दुःख-विकल’, देखो ‘अखिल समाज’ !!

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‘सदाचार के वन’ जले, ‘तम; की लागी ‘आग’ |
बचें कहाँ ‘सत्’ और ‘राज’, होंती ‘भागमभाग’ ||
प्रबल ‘काम’ की ‘वासना’, है मानो ‘बीमार’ |
‘शील-कबूतर’ देख कर, टपकाती हैं ‘लार’ ||


‘दुराचार’ के उड़ रहे, ‘बाज’ न आते बाज़ |
पिघलो हे ‘हरि’ ! ‘दुःख-विकल’, देखो ‘अखिल समाज’ !!१!!


‘राम’-‘कृष्ण’ या ‘बुद्ध’ के, या ‘ईसा’ के ‘लाल’ |
‘मुहम्मदी’ या ‘नानकी’, सब पर उठे ‘सवाल’ ||
‘धर्म’ के सच्ची ‘अर्थ’ का, होता घोर ‘अनर्थ’ |
‘आडम्बर-पाखण्ड’ में,उलझे हैं ‘हम’ व्यर्थ ||
सभी ‘त्याग’ को छोड़ कर, करना चाहें ‘राज’ |
पिघलो हे ‘हरि’ ! ‘दुःख-विकल’, देखो ‘अखिल समाज’ !!२!!


‘मान’ और ‘पद’ उच्च हैं, किन्तु ‘कर्म’ से ‘नीच’ |
‘ऊँचे’ उठे ‘खजूर’ कुछ, ‘कदली-वन’ के बीच ||
‘कालयवन’ कुछ ‘पौण्ड्रक’, बने ‘लक्ष्मी-कन्त’ |
‘अधर्म’ करते फिर रहे, हैं कुछ ‘धनी महन्त’ ||
‘लाज’ रूप ‘धन’ लूटते, इन्हें न आती ‘लाज’ |

पिघलो हे ‘हरि’ ! ‘दुःख-विकल’, देखो ‘अखिल समाज’ !!३!!

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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