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शनिवार, 4 अक्तूबर 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (13) मानवीय पशुता (क) पिशाचिनी भूख |

 (सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार) 
मिटी सादगी  ह्रदय  के, उथले   हुये   विचार !
मानवता   में   पनपते,  पशुता   के   व्यवहार !!
काम-कला  का  प्रदर्शनखुले  में  करते लोग !
पशुओं   जैसा चाहते,   मुक्त  यौन  के  भोग !!
ये  मानवता  के  सभीनियम  रहे  हैं  तोड़ !
पशु-प्रवृत्ति  के प्रदर्शनकी  लगती  है  होड़ !!
इसीलिये  तो   ह्रदय  मेंभरने  लगे  विकार !
मानवता   में  पनपते,  पशुता  के  व्यवहार !!1!!



प्रेम का  अर्थ शरीर  कारमण नहीं  है  मात्र !
कामी जन- तन   भोगतेबना  वासना-पात्र ||
रति की  मदिरा  पी  तथातन को ठोकर मार |
जो  जन  सुख  हैं भोगतेवे  हैं  सभ्य गँवार ||
ऐसे   लोगों   से   बना,   है   जंगल   संसार |
मानवता  में   पनपतेपशुता  के  व्यवहार !!2!!

खुले-खुले  खल खेलतेखुल  कर   रति   के खेल !
इंसानी तहज़ीब  को,   नर्क  में   रहे  ढकेल  !!
देखोक्लब, पार्क  तथासमुद्र-तट  इत्यादि !
में   कामी जन  दिखाकरउच्छृंखल  उन्माद ||
करते   बन्धन   तोड़  करपशुवत   यौनाचार !
मानवता  में   पनपतेपशुता  के  व्यवहार !!3!!

About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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