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मंगलवार, 22 जुलाई 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य)(5)समाज-चर्चा (ख) भारी अहसान

                      (सारे चित्र 'गूगल-खोज'से साभार)
                 
 समाज ‘माता’ की तरह, होता ‘पिता’ सामान |
इस समाज के सभी पर, हैं भारी ‘अहसान’ ||
जीना सिखलाता हमें, यह बन कर ‘आचार्य’ |
इसकी सेवा करें सब, यह नितान्त अनिवार्य ||
समाज ‘भोला’ शम्भु सा, है हरि सा ‘चैतन्य’ |
‘ब्रह्मा’ सा ‘गम्भीर’ है, यह समाज अति ‘धन्य’ ||
‘सत्-रज-तम’ तीनों गुणों,  की समाज है ‘खान’ |
इस समाज के सभी पर, हैं भारी ‘अहसान’ ||१||


अलग-अलग इसके हमें, मिलते कई ‘स्वरुप’ |
‘देश-काल’-‘भूगोल’ के, होते ये ‘अनुरूप’ ||
‘अच्छे स्वरुप’ में सदा, ‘समाज’ है ‘रहमान’ |
और ‘बिगड़ते रूप’ में, है यह ही ‘शैतान’ ||
‘विवेक का सागर’ कभी, और कभी ‘नादान’ |
इस समाज के सभी पर, हैं भारी ‘अहसान’ ||२||


कई ‘विविधतायें’ लिये, इसके ‘गुण’ हैं ‘भिन्न’ |
कभी ‘सुखों का सिन्धु’ है, और कभी अति ‘खिन्न’ ||
‘समाज’ ने पैदा किये, ‘राम-कृष्ण’-‘भगवान’ |
और इसी में हुये हैं ‘रावण-कंस; समान ||
“प्रसून” इसका हुआ है, ‘पतन’ कभी ‘उत्थान’ |
इस समाज के सभी पर, हैं भारी ‘अहसान’ ||३||

       

About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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