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शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2013

मैं बंजारा भारत का |वर्तमान कड़ियाँ (सन् २००७ के बाद की यात्रायें) (२) सब कुछ खो कर घर को लौटे ! (ख)अमानत में खयानत (अन्तिम कड़ी )

(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार) 
           
 


           इतनी देर में वहाँ एक दीवान नीरज सिंह आ गये थे | पूर्ण स्वस्थ, प्रसन्न-वदन और व्यवहार-कुशल | वे सबइंस्पेक्टर पर भी भारी प्रतीत होते थे क्यों कि सब इंस्पेक्टर अब चुप ही रहा | उनहोंने मुझे सान्त्वना दे कर कहा-“आप के सम्मान को ठेस पहुँचेगी | लम्बे समय के बाद भी कुछ हासिल नहीं होगा क्यों कि आप के पक्ष में  गवाही का अभाव है | सच बात तो है कि इन भर्ती वालों हरक़तें ऐसी ही होंती हैं | वे लोग अपने मक़सद में कामयाब हो गये | उन्हें आप की आड़ में इस बेबकूफ से कुछ सामान चाहिये था वह उन्हें मिल गया, बस | वह नशेड़ी भी कुछ कम नहीं था | अपने मोवाइल के लिये कुछ सौ रुपये दिये जाने का हठ मुझे आपे से बाहर कर रहा था | मैं तो यों ही लुट चुका था | मैने एक पैसा भी एने से मना कर दिया था | बेटे ने कुछ भी देने से मना कर दिया था |
            इतनी देर में उस नशेड़ी के द्वारा बताए गये मो. नम्बर पर फोन कर के उस के घर वालों को बुला लिया गया था | फोन करने के लगभग आधे घंटे के बाद उस की पत्नी, बहिन और भानजी आयीं | उस की घरवाली ने आते ही अपने आदमी को लानत मलामत भेजना प्रारम्भ कर दिया-“साहब एक पैसा नहीं देता है मुझे या बच्चों को सब चरस, स्मैक या शराब-अफ़ीम में चला जाता है | हर समय नशा किये रहते हैं ये | कई तरह के नशे एक साथ करते हैं |” उस आधे पागल नशेड़ी की मोबाइल मुझ से वसूलने की ज़िद इस कथन से काफ़ी कमज़ोर पड़ गयी | हाँ, एक बात और ! नशेड़ी ने पुइलिस वालों के पूछने पर अपने मोबाइल का नम्बर यहाँ भी नहीं बता पाया | बार बार वही आठ अंकों का नम्बर बता पाया | मज़े की बात तो यह कि उस के आगत परिजन भी यह नम्बर नहीं बता पाये | आखिरकार पुलिसिया सब इन्स्पेक्टर ने कहा- “स्सा--, बहुत पिटेगा ! चारसौबीस, चल तुझे स्मैक और अफ़ीम के केस में सात आठ साल तक जेल की हवा खिला ही दूं !!”
            दीवान नीरज सिंह के बुरी तरह फटकारने पर नशेड़ी की बहिन व पत्नी ने उसे जो धिक्कारा तो वह टूट गया | उसे कई वर्ष की जेल का डर हो गया | दीवान जी ने अन्त में मेरे बेटे से पूछ कर यह तय किया कि मैं अपने सामान के खोने की शिकायत न करूँ और वह अपने मोबाइल के लिये अपनी शिकायत न करे | मैने उस के द्वारा पहल करने पर ज़ोर दिया और दोनो ओर से एक ही कागज़ पर कार्यवाही हो गई उ उस पाजी नशेड़ी को दुत्कार कर भगा दिया गया | मुझे अगली वापसी की ट्रेन की प्रतीक्षा में स सम्मान बैठा लिया गया | नतीज़ा ठन ठन गोपाल ! नौ दिन चले अढाई कोस !!
      अन्त में मेरे हाई स्कूल-प्रमाणपत्र और साहित्यिक सम्मान-पत्रों और   सामान सहित एक बैग के खो जाने की सूचना उस थाने में पावती ले कर देने का परामर्श दिया दीवान जी ने | बाद में दो पंक्तियाँ लिख कर उसे यह कह कर निरस्त कर दिया कि सिकंदाराराव स्टेशन जी. आर. पी. थाना हाथरस सिटी के कार्य-परिसर में नहीं आता है | एक सूचना-पत्र गी. आर. पी. थाना कासगंज के थाना-इंचार्ज्म के नाम लिखा कर वहाँ पावती लेने के लिये मुझे प्रेरित किया दीवान
नीरज सिंह ने और अपना मोबाइल नम्बर किसी कठिनाई के आने पर संपर्क करने हेतु दे दिया | रात्रि दस बजे के लगभग कासगंज को बापसी की ट्रेन आने पर सम्मान सहित दीवान नीरज सिंह मेरा सामान अपने हाथ में ले कर ट्रेन के एक डिब्बे में एक सीट पर बैठा आये और टिकिट की कोई परवाह न करने का परामर्श दिया और बताया कि कोई भी चेंकिंग करे तो मैं उन का नाम बता दूं | टिकिट लेने का समय ही नहीं था |
        मैं बुझे मन से हताश लौटा हुआ बैठ कर कासगंज बारह बजे रात के करीब पहुँचा | अभी और टक्करें खानी थीं | भारी ब्रीफकेस ट्राली के पहियों पर लुढ़का कर पूछता पाछता, भटकता थकता जी. आर. पी.-थाने के पास पहुँचा तो वहाँ अजब ही दास्तान थी | एक अच्छी भली उभरे पेट वाली तंदुरुस्ती वाले खाकी पैंट और बनियान में बैठे थे | उन की ओर मुझे उंगालियोन के संकेतों से  ठेल दिया गया था | बड़े भद्दे रौब से उन सज्जन ने मुझ से पूछा, नहीं नहीं, धमकाया-
‘’क्या है ?-प्रश्न दागा गया मेरे कानों में |
“दरोगा जी कहाँ मिलेंगे ?” प्रश्न के ऊपर प्रश्न दागा मैने भी | बात थोड़ी बढ़ाना चाहती थी | मैने अपनी पहले से ही निकाल कर हाथों में पकड़ी शिकायत दिखा कर कह दिया-“मेरा सामान सिकंदाराराव स्टेशन पर गुम हो गया | यह सूचना पत्र
प्राप्त कर लीजिये | “
 “क्यों, मैं कैसे मान लूँ कि आप का सामान गुम् हो गया ?’
“‘झूठ बोलने का मेरे लिये कोई कारण नहीं |”
“झूठ बोलने का कोई कारण नहीं होता, कोई भी झूठ बोंल सकता है |“
‘देखिये, मैने अपने सूचना-आवेदन में किसी धन-सम्पदा का ज़िक्र नहीं किया है और न ही किसी कीमती सामान् का ही हवाला दिया है |”
‘जाइये, पहले शपथ-पत्र बनवा कर लाइए |”
“यह तो काम न होने देने वाली बात हो गयी | अब मैं रात को बारह बजे के बाद  कहाँ से आप की यह माँग पूरी करूँ ?’
‘ठीक है आप अपना नाम-पता-मोबाइल-नम्बर नोट करा दीजिये | सामान मिलजाने पर सूचना दे दी जायेगी |” मैं तो तुला बैठा था अपना काम करवाने को | जला बैठा था पीड़ा की आग से | मैं चुप नहीं हुआ |-
“आप मेरी उम्र का भी लिहाज़ नहीं कर रहे हैं | मेरी मज़बूरी भी नहीं समझ रहे
हैं | मेरे दस्तावेज़ गये हैं, हाईस्कूल  का सर्टीफिकेट खोया है | जीवन भर का सम्मान खोया है | हाथरस वाले यहाँ भेज रहे हैं और आप मेरी सुन नहीं रहे हैं |’
“हाथरस सिटी वालों ने क्यों नहीं आप की अर्जी ली ?”
“यह मैं क्या बता सकता हूँ | उन्होंने सिकंदराराव को अपने क्षेत्र से बाहर
बताया | इस में मैं क्या कर सकता था ?”
“रिपोर्ट अपराध की रिपोर्ट करने का भी कोई क्षेत्र होता है क्या ? माँ लो कोई बीमार है तो क्या डॉक्टर यह कहेगा कि यह आप मेरे क्षेत्र के नहीं ? “
उस अफसर का कुतर्क अटपटा और हास्यास्पद किन्तु वजनी था | मुझे कुछ उत्तर सूझ नहीं रहा था | मुझे उस पर क्रोध आ रहा था | मेरे धीरज की परिक्षा थी |
“मैं यह कैसे कह सकता हूँ ? अगर आप कागज़ रिस्र्र्व नहीं करेंगे तो मैं आगे की कार्यवाही कैसे करूँगा ? आप को नहीं करना हो तो न करें पर ऐसी कठोर  बातें  न करें निराश कर रहे हैं हैं आप |”
खैर ! न जाने क्या समझ में आया दुनियाँ में खुद को सब से ज्यादह काबिल समझाने वाले उस अफसर को | उस ने अपने सहायक को कागज़ पकड़ाया-
“लों, मोहर लगा कर ले आओ, इन्हें दे दो |” वह गया और मोहर लगा के ले
आया | कागज़ मुझे पकड़ा दिया जैसे भिखारी को मिन्नत खुशामद के बाद भीख दी जाती है | अन्त में वह अफसर बोला-“अब तो हो गया आप का काम ! अब जाइए |“ बेरुखी-मिलनसारिता की अजीब खामी थी उस में | मैं चला आया और चार घंटे इधर उधर चहल कदमी करता, बेंचों पर बैठता मच्छरों से बचता बचाता साढ़े चार बजे ट्रेन की एक सीट पर आराम से बैठ गया | सामन की चिन्ता में नींद से लड़ता पीलीभीत स्टेशन पूर्वान्ह दस बजे और साढ़े दस बजे अपने घर आ गया |  सब कुछ खो कर घर को लौटे !
       घर पर पन्द्रह अक्तूबर को आया | दो दिन डट कर आराम किया | राहुल, मेरे बेटे ने मुझे परामर्श दिया कि किसी लोकप्रिय समाचारपत्र में सूचना दे कर पत्रजातों के दुरुपयोग की संभावना से सुरक्षा कर लें | दिनाँक १७ अक्तूबर को दैनिकजागरण में पैंतीस शब्दों में सूचना दे दी गयी जो अगले दिन १८ अक्तूबर को छाप गयी  | कटिंग सुरक्षित कर ली गयी | मैं इस कठोर प्रहार से कैसे बच पाया भला ? दिल की बीमारी –एंजाइना, प्रोस्टेट आदि कई रोगों से ग्रस्त एक ६६ वर्ष का वृद्ध !       
          बात यह है कि मन में मेरे एक ‘न्यायाधीश’ हर समाया प्राय: जागृत रहता है | शायद मैं उन सम्मानों के योग्य नहीं होऊंगा | ‘उसकी ‘न्याय व्यवस्था’ सर्वोपरि है | ‘सुप्रीम कोर्ट’ के फैसले के ऊपर कोई अपना निर्णय थोप सके इतनी हिमाकत कैसे कर सकता है उस का यह तुच्छ दास ! एक जीवन-रक्षक मंत्र मेरे काम आ गया-श्रीमद्भगवद्गीता का दूसरे अध्याय के अड़तीसवें श्लोक का भगवान श्रीकृष्ण का यह आदेश—
         ‘सुखदुखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ |
        ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ||’
श्रीरामचरितमानस का यह आधा दोहा मेरे जीवन का आधार है—
      ‘लाभ-हानि,जीवन-मरण, यश-अपयश विधि-हाथ |’
सच तो यह ही होगा कि शायद मैं या तो उन सम्मान-पत्रों के योग्य नहीं होऊंगा या फिर मुझे वे सम्मान पूर्वक नहीं दिये गये होंगे ! मेरे कर्मों को मेरा वह सदा-मित्र-प्राण-प्यारा नहीं जानता होगा क्या !!अपना कर्त्तव्य पूरा किया और अब मैं आप सब के बीच सामान्य हूँ | बस ! आप का प्यार इन सब से ऊपर है, यही मिलता रहे-मन से प्यार !!
                 
         
        


गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

मैं बंजारा भारत का |वर्तमान कड़ियाँ (सन् २००७ के बाद की यात्रायें) (२) सब कुछ खो कर घर को लौटे ! (ख)अमानत में खयानत

(विगत से आगे)
गूगल-खोज से लिये गये इस चित्र का घट्न सम्बन्ध नहीं है, अपितु यह केवल एक
 सांकेतिक चित्र है |


     

+++++++++++++++++  

           मेरे साथ उन हिमायतियों में से कोई नहीं आया | मैं और चोर का तथाकथित साथी दिनेश उस पुलिस वाले के साथ थाने पहुंचे | वहाँ सिविल ड्रेस में बैठे एक दरोगा नुमा व्यक्ति ने तपाक से पूछा_”क्या है ?”  
मैं ने कहा-“मेरा सामान चोरी हो गया |”                               
“यह कौन है ?”
“लोगों ने बताया कि इसके साथी ने मेरा सामान चुराया है |”
पता चला कि वह सिविल ड्रेस वाला पुलिस वाला सुब इन्सपेक्टर था | बहुत ही कुशल और चतुर नीतिज्ञ था वह घुटा मंजा पुलिसिया चाल में | मोटा बेंत बजाया गया उस नशेड़ी दिनेश की टाँगों में किन्तु वह लगातार कहता रहा-“साहब मैने किसी को नहीं दिया इनका सामान |”
“फिर बता, किसने चुराया इन का सामान ?”
“मुझे क्या पता ? साहब, मेरा मोबाइल ले गया इन का साथी |”
“आप बताइये इस का मोबाइल किस के पास है ?” सब इन्स्पेक्टर ने मेरी ओर मुख किया |
        मुझे काटो तो खून नहीं ! १४ अक्तूबर २०१३ की वह रात सचमुच काली थी मेरे लिये, भले ही वह आश्विन की शारदी शुक्ला दशमी की रात्रि थी उजली धवल पर मेरे सम्मान पर काला धब्बा बन गयी थी | मुझ से जीवन में प्रथम बार ऐसा प्रश्न किया किसी ने |
 “वह तो एक आदमी ले गया जो कि इस को पकडने वाले का साथी था |”
“नहीं साहब मोबाइल इन के पास आगया था | मैने इन से माँगा मगर इन्होंने मुझे नहीं दिया |” - दिनेश ने मेरे विरुद्ध शिकायत की | लों, अब मैं भी था दो आरोपियों में से एक ! लेने के देने पड़ गये !!
इतने समय में दो एक और पुलिस की वर्दी वाले आये और दिनेश के बेंत या दो एक थप्पड़ या एक आध लात जड़ गये | मेरे बेटे राहुल का संयोग से फोन आया उसे जब मेरे द्वारा इस सम्पूर्ण घटना का पता चला तो उसने हल्के से झिड़कते हुये कहा-“पापा आप मामला निपटा कर सीधे घर आजाइये |” जब मैने महत्त्वपूर्ण पत्रजातों की बात बताई तो उस ने अपने मित्रों को यह बात बता दी | दिल्ली के उस के एक मित्र- सी. बी. आई. के अफसर से की, जी. आर. पी. के उस सब इंस्पेक्टर से बात करवाई गयी | इस से तो मामला सुलझाने की बजाय और उलझ गया | इस उलझाव का बहुत बड़ा कारण था बबलू की छल-नीति | उस ने मुझे अपने मोबाइल का जो नम्बर दिया, उसे चार पाँच बार लगाने पर हर बार उस का स्विच ऑफ जा रहा था | पुलिस वालों ने भी मिलाकर देखा पर वही धाक के तीन पात ! बहुत शातिर निकला वह मेरा अमानत का रखवाला और हिमायती !! अब मैं बिलकुल अकेला था |    
     सब इन्स्पेक्टर ने उस अफसर से कहा- “देखिये साहब, इन अंकल जी का कहना है कि इन का सामान इस आदमी के साथी द्वारा उठाया गया है और यह आदमी  कहता है कि इन अंकल जी ने इस का मोबाइल गायब करवाया है | अब अगर इनकी ओर से एफ. आई. आर. कीजाएगी तो उस की ओर से भी की जाये- गी,वर्ना इस आदमी के लोग मेरे खिलाफ हलागुला करवा सकते हैं | हाँ,दिनेश की जेब से तीन पुडियां पकड़ ली गयीं- एक चरस की, थोड़ी सी अफ़ीम की एक और ज़रा सी स्मैक की एक पुड़िया | उस की पिटाई फिर हुई और अब उसे काबू करने के लिये पुलिस के पास काफ़ी मज़बूत पकड़ थी | | अब तक नौ बज चुके थे | डेढ़ घंटे की इस झंझट से नतीजा कुछ भी न निकला | उस सबइंस्पेक्टर की बहस सी. बी. आई. अफसर और मेरे बेटे से कई बार हो चुकी थी |
    और एक कद्दावर लम्बे पुलिस वाले ने उस बात की ज़ोरदार हामी भरी एवं उस के दो एक डंडे जड़ दिये | उस के घरवालों ने खुशामद दरामद कर के हाथ पाँव जोड़ कर उस को बचाया | उस की बहिन और भानजी भी उसे कोस रहे थे-“क्यों तुम्हें शर्म है कि नहीं, चलो यहाँ से ?” आदि आदि | उस की पांचवी बार पिटाई लग गई | सब इन्स्पेक्टर ने अपने वरिष्ठ अधिकारी एस. ओ. से फोन पर सारी घटना का हवाला दे कर परामर्श किया और अब वह मेरी ओर उन्मुख हो कर बोला-“अंकल जी.मैं अब दोनों की ओर से रिपोर्ट कर देता हूँ आप दोनों ही जेल जायेंगे | यह नशीली चीज़ों के लिये और आप इस का मोबाइल गायब कराने के लिये | जब आप के पास एक बार मोबाइल आ गया था | तो आप ने इसे क्यों नहीं सौंप दिया या अपने पास क्यों नहीं रख लिया ? मैं तो इस के बाप-दादों से आप का सामान उगलवा लेता | अब मैं आप की मदद करूँ तो कैसे ?”
          मैने अपने पुत्र से फिर सलाह ली उस की उस आदमी से तथा सब इन्स्पेक्टर से कई बार झड़प व बातचीत हुई | एक बार तो लडके की राय पर मैने कह दिया-‘ठीक है दोनों तरफ़ से मुकदमा दायर कर दीजिये |देखा जायेगा | मैं लड़ लूंगा हाईकोर्ट तक | एक बात बताइये मुझे आप ! जिसकी जीवन भर की कमाई चली जाये उस की सोच समझ और मनोदशा क्या दुरुस्त रह सकेगी ? देखिये, जब मैं फोन से इस नशेड़ी के घरवालों से इस की असलियत की जानकारी लेने का प्रयास कर कर रहा था, इसे बीच मुझ से मोबाइल उस नौजवान ने छीन लिया |“
“आप ने उन लोगों से मोबाइल बापस क्यों नहीं लिया ?”
“मुझे उन लोगों की ज़रूरत थी अपने मामले में पैरवी के लिये | वे मेरे साथ यहाँ तक आने वाले थे | फिर मैं इतने लोगों से इस बुढ़ापे में लड़ लेता क्या ? मेरी अक्ल कटी हुई थी | मानसिक रूप से मैं प्रताडित था यह आप क्या जानें ! मैं अकेला था और वे बीसियों | आप के इन साहब ने मुझे एक दम उतार लिया और मुझे इस नशेड़ी के साथ ले आये | मेरे कहने के बावजूद इन्होंने उन्हें नहीं उतारा | ट्रेन चल दी तो मैं क्या करता |” मेरी आवाज़ की तेज़ी ने काम कर दिया था | 

मंगलवार, 22 अक्तूबर 2013

मैं बंजारा भारत का |वर्तमान कड़ियाँ (सन् २००७ के बाद की यात्रायें) (२) सब कुछ खो कर घर को लौटे !

         दिनाँक व दिन किसी दोष के कारण एक दिन पूर्व का आ रहा है !

(बुधवार  २३-१०-२०१३)

'गूगल-खोज' से लिया गया यह चित्र केवल सांकेतिक है | इस का घटना-

क्रम से कोई सम्बन्ध नहीं है !

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(ख)अमानत में खयानत
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मैं क्या करता ? खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे ! मैं किस पर अपनी पीड़ा का बोझ डालता ? मेरा कौन था वहाँ ?? मेरा ‘विशवास’ चला गया था | मेरे ‘आत्म विशवास  घायल हुआ था | मेरी ‘सतर्कता’ पर चोट लगी थी | सामने बैठा वह नौजवान ही मेरालक्ष्य हो सकता था मेरी इस दशा का कारण | मेरी बौखलाहट उसी पर बरस पड़ी-“ मेरा साम,अन् तुम्हारे कारण  गया है | एकाएक इस अप्रत्याशित ‘वाणी-आक्रमण’ से बौखला गया वह भी | ‘रेलगाड़ी’ दौड़ रही थी मेरा सामान लुटवा कर या मुहँ छुपाने को भाग रही थी | मैं उस नौजवान को डांट  रहा था | अगले स्टेशन पर गाड़ी रुकी तब तक उस युवक पर मेरी आरोप भरी फटकार का असवर पड़ चुका था | इससे पहले कि उस की बूढ़ी माँ कुछ समझ पाती ,वह उतरा और एक दूसरे नौजवान, जो कि उस से कुछ बड़ा था, को कस कर पकड़ कर ले आया | वह काफ़ी  बदहवास था | नशे का उस पर असर था | जो नौजवान मेरे सामान के लिये उत्तरदाई था और इस स्मैकिए को पकड़ कर लाया था उस का नाम था बबलू और वह था हाथरस सिटी का निवासी | आते ही एक विजेता की भाँति बोला-“अंकल जी! सामान इस के साथी ने चुराया है |“
       उस की इस बातको सुन कर डिब्बे में सभी नौजवान चौंक कर सक्रिय हो गये थे | वह रोने का स्वाँग करता हुआ लगातार कहता रहा-“मैंने किसी को सामान उतार कर नहीं दिया |” कई लोगों ने और मैंने भी जब उस से पूछा कि वह कैसे कह सकता है कि उस की साजिश से सामान गया है तो बबलू ने बताया-“यह अभी स्टेशन पर कई डिब्बों में घुसा और उतरा किसी से गुप-चुप तरीके से बातें कर रहा था | फोन पर भी इस ने किसी से शक पैदा करते हुये बात की |” इस पर सभी को उस पर सन्देह हो गया और सब ने उसे बहुत मारा पर कोई खतरनाक चोट नहीं आने दी | मैंने लोगों को बड़ी कठिनाई से रोका नहीं तो कोई अनहोनी हो सकती थी | कई बार छोटे स्टेशनों पर उस ने उतरने का प्रयत्न किया पर बहुत से भर्ती से लौटे जवान उसे रोके रहे | एक छोटे स्टेशन पर वह उतरा किन्तु बबलू उस के पीछे उतरा तथा उसे कास कर पकड़ कर ले आया और उस ने बताया-“ जायेगा कहाँ इस का मोबाइल मेरे पास है |”
         मेरा हाल, ‘एक प्याला प्राप्त किसी प्यासे’ जैसा था | मुझे लगा कि शायद मेरा सामान मिल जायेगा | मेरी जान में जान आ गई थी | लोगों ने यह तय किया कि आगे हाथरस सिटी आएगा वहाँ इसे गी.आर.पी. को सौंप दिया जाये | इस पर मैं ने जब यह पूछा कि मेरे साथ कौन जायेगातो बबलू ने कहा-“ अंकल जी आप चिन्ता न करें | मैं आप के साथ हूँ न !” उसके इन ‘सान्त्वना-वचनों’ पर उस की माँ पानी फेरती रही यह कह कर-“नहीं तू कही नहीं जायेगा | इनका सामान है ये खुद निपटें | तू क्यों टांग अडाता है ?” बबलू के लाख समझाने पर भी वह वृद्धा मेरे साथ जाने को तैयार नहीं हुई तो नहीं हुई | खैर, हाथरस सिटी आने पर बबलू  एक खुले गेहुएं रँग के और एक श्यामले नौजवान सहित दो तीन और नौजवानों को अपना दायित्य सौंप कर उतरने लगा | यहाँ ट्रेन कुछ अधिक देर न सही पर छोटे स्टेशनों से तो अधिक रुकनी थी | साथ के उन तीन चार नौजवानों ने मुझे मथुरा में चोर के उस नशेड़ी साथी को सौंपने का इरादा पक्का कर लिया था | उस नशेड़ी ने अपना नाम दिनेश बताया था | मैं क्या करता ? असहाय था | हर एक की राय मेरे लिये कीमती थी |  
            मेरे मस्तिष्क में एक बात तो कौंधी | मैंने बबलू को तुरत बुला कर मोबाइल माँग लिया जिसे उस ने बिना किसी हीला हवाला के मुझे दे दिया | ट्रेन काफ़ी देर रुकी पर पुलिस अभी तक नहीं आयी | हाँ ! इस बीच दिनेश सहित दोतीन नौजवान बबलू के मोबाइल से उस के बताए नंबरों पर उस की पत्नी और बहिन से बात करने तथा उस के नाम पता की जाँच पडताल करने का प्रयास करते रहे | उस की हर झूठ पर उस की पिटाई होंती | वह एक के बाद एक नए बहाने कर के सन्देह को और भी पुष्ट करता रहा और पिटता रहा | वह मोबाइल दो तीन हाथों में अदल बदल कर रहा बीच में मेरे हाथ में भी आया | पर अन्त में उस थोड़े गोरे नौजवान ने अपने हाथ में ले लिया | इसी बीच एक जी..आर.पी. का जवान दिखाई दिया जो हल्ला गुल्ला सुन कर भेजा गया प्रतीत होता था | लोगों की पुकार पर उस ने उस नशेड़ी को उतारा और मुझे साथ चलने को कहा | हडबडी में मोबाइल मैं न ले सका | मैं अपना ब्रीफकेस ले कर उतरा और उस हिमायती गेहुएं जवान से साथ चलने को कहता ही रह गया | न तो पुलिस वाला ही रुका और न ही ट्रेन | ट्रेन ने रफ़्तार पकड़ ली और में था जी.आर.पी..थाने में उस नशेड़ी के साथ  | सिकंदाराराव में जी.आर.पी. के केंद्र के न होनी की बात मुझे पहले ही बता दी गयी थी | 
      
  मेरे मस्तिष्क में एक बात तो कौंधी | मैंने बबलू को तुरत बुला कर मोबाइल माँग लिया जिसे उस ने बिना किसी हीला हवाला के मुझे दे दिया | ट्रेन काफ़ी देर रुकी पर पुलिस अभी तक नहीं आयी | हाँ ! इस बीच दिनेश सहित दोतीन नौजवान बबलू के मोबाइल से उस के बताए नंबरों पर उस की पत्नी और बहिन से बात करने तथा उस के नाम पता की जाँच पडताल करने का प्रयास करते रहे | उस की हर झूठ पर उस की पिटाई होंती | वह एक के बाद एक नए बहाने कर के सन्देह को और भी पुष्ट करता रहा और पिटता रहा | वह मोबाइल दो तीन हाथों में अदल बदल कर रहा बीच में मेरे हाथ में भी आया | पर अन्त में उस थोड़े गोरे नौजवान ने अपने हाथ में ले लिया | इसी बीच एक जी..आर.पी. का जवान दिखाई दिया जो हल्ला गुल्ला सुन कर भेजा गया प्रतीत होता था | लोगों की पुकार पर उस ने उस नशेड़ी को उतारा और मुझे साथ चलने को कहा | हडबडी में मोबाइल मैं न ले सका | मैं अपना ब्रीफकेस ले कर उतरा और उस हिमायती गेहुएं जवान से साथ चलने को कहता ही रह गया | न तो पुलिस वाला ही रुका और न ही ट्रेन | ट्रेन ने रफ़्तार पकड़ ली और में था जी.आर.पी..थाने में उस नशेड़ी के साथ  | सिकंदाराराव में जी.आर.पी. के केंद्र के न होनी की बात मुझे पहले ही बता दी गयी थी | 
\
(क्रमश:)      

                                          


शनिवार, 19 अक्तूबर 2013

मैं बंजारा भारत का |वर्तमान कड़ियाँ (सन् २००७ के बाद की यात्रायें)

आज पन्द्रहवें दिन घरेलू झंझावातों,इधर उधर की दौड़ और नेटवर्क

 की समस्याओं से झूझ कर पुन:आपके सामने अपनी एक यात्रा के

 दौरान केक अनहोनी असावधानी के चुभते काँटों के साथ |  
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===========================================    (२) सब कुछ खो कर घर को लौटे !
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नीचे के चित्र का सम्बन्ध मेरी आपबीती से कुछ भी नहीं अपितु गूगल-खोज से लिया यह एक सांकेतिक चित्र है ! 

अक्टूबर, वर्ष २०१३ की यह यात्रा किसी प्रकार भी शुभ या उत्साह वर्द्धक नहीं कही जा सकती है | १४ अक्टूबर की इस यात्रा में बहुत कुछ सीखने को मिला | मेरे ‘अति विशवास’ और ‘अनुभव’ को क़रारी चोट लगी | यानी यह मेरी ‘दिल तोड़ यात्रा’ थी | मेरी यह चावालिसवीं ‘भारत-दर्शन’ की यात्रा थी जिसमें मैने पहली वार ‘धर्म-स्थल’ को मुख्य लक्ष्य बनाया था |
       इस यात्रा का अग्रिम आरक्षण  मेरे पुत्र राहुल गौरव दत्त ने २० सितम्बर को ही घर में उपलब्ध इन्टरनेट सुविधा पर ऑनलाइन कर दिया था –मथुरा से उज्जैन १४ अक्टूबर २०१३ को तथा वापसी का २५ अक्टूबर २०१३ को उज्जैन से मथुरा | इस यात्रा में १६ अक्टूबर से २५ अक्टूबर तक उज्जैन, इंदौर क्षेत्र, भोपाल क्षेत्र, के दस-बारह स्थलों का भ्रमण करना था एवं २६ अक्टूबर से २८ या २९ अक्टूबर तक कन्नौज, मथुरा व धौल पुर आदि स्थानों का भ्रमण-दर्शन, लेखन करना था | अति उत्साह में था और सब कुछ ठीक ठाक था |
         अच्छा भला चला था अपने गृह-नगर पीलीभीत से कासगंज और वहाँ से आधा घंटा लेट गाड़ी सं.५५३४१ से मथुरा जा रहा था | अथाह भीड़ वाली इस रेलगाड़ी में भीड़ अकूत थी, भर्ती वाले नौजवानों की अनियंत्रित भीड़ | अफीमचियों, स्मैकियों चरसियों और शराबियों से सशंकित भीड़ | जेब कतरों, उठाईगीरों से शंकित ठसाठस भरी गाड़ी | इसम पैसेंजर गाड़ी में आखीर से इंजन के पहले दो डिब्बों तक पान रखने को जगह नहीं | केवल धक्कामुक्की में माहिर नौजवान बैठ सकते थे | मिया जैसे तैसे इंजन से पहले दूसरे डिब्बे में बैठ सका | बैठ क्या सका,खड़ा ही रहा सिकंदाराराव तक | दरवाज़े के पास वाली सीट के ऊपर मचान पर सामान रखा | ट्राली-बैग ब्रीफकेस के ऊपर मध्यमाकार कन्धे का थैला | बड़ी देर तक सिकंदाराराव तक तो सीट न मिलने के कारण सामान के पास बैठा रहा | सिकंदाराराव आने पर यात्री उतरे तो स्थान सामने की एक सीट मिली ‘अन्धे को दो आँखों’ की तरह | भीड़ के कारण इतना अवसर न मिला कि सामान सीट तक न ला सका या यों कहो कि ‘होतव्यता’ ने मति भ्रष्ट कर दी अन्यथा कन्धा-बैग तो ले कर बैठ ही सकते थे |
       ओह ! सामने के सज्जन नुमा नौजवान ने बार हठ कर के सामान लाने को सिर्फ इस लिये मना कर दिया कि सीट घिर जायेगी | उसने गारंटी दी कि सामान वह देखता रहेगा | सिकन्दराराव से गाड़ी चलते ही, उस नौजवान के मुहँ घूमते ही मैंने सामान पर एक ‘लुटरा हाथ’ आते देखा | लों, जब तक मैं चिल्ला कर आगे बढ़ता, गाड़ी चल पड़ी और बैग लेकर वह बेदर्द उठाईगीर यह गया –वह गया ! मेरे लिये आजीवन पीड़ा दे गया | घरवालों के बार बार मना करने पर मेरी
मारी गयी मति ने उसी बैग में मेरा वर्ष १९६३ का हाईस्कूल का प्रमाणपत्र रख दिया था और जीवन भर प्राप्त साहित्यिक सम्मान-प्रमाणपत्र और बड़े छोटे कवि-सम्मेलनों में सहभागिता के प्रमाणपत्रों की फ़ाइल भी रख दी थी, जिन के फोटोस्टेट भी मेरे पास नहीं हैं, वे भी उसी बैग में थे | इन में से कुछ तो बहुत ही महत्वपूर्ण थे | जैसे वर्ष १९८५ में खटीमा के अपने मित्र डॉ.रूप चन्द्र शास्त्री ”मयंक” के साथ शेक्सपियर हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग के तत्वाधान में प्राप्त प्रमाणपत्र | उस समय डॉ.शास्त्री मरी कर्म क्षेत्र बनवसा में ही थे | दूसरा प्रमाण पत्र था वर्ष २००० में जैमिनी अकादमी पानीपत से प्राप्त ‘आचार्य’ की मानद  उपाधि | तीसरा प्रमाण पत्र था नजीबाबाद की एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था द्वारा  कैम्पा कोला फैक्ट्री में सम्पन्न कार्यक्रम में प्राप्त शोध-पत्र वाचन का और मुरादाबाद में डॉ.महेश दिवाकर द्वारा सम्पन्न सम्मलेन का, दिल्ली आदि स्थानों में प्राप्त प्रमाणपत्र थे | नेपाल महाकाली अंचल के कंचनपुर जिल्ला के मुख्यालय महेन्द्रनगर में वहाँ के राष्ट्रीय स्तर के एक साहित्य-सम्मलेन में सहभागिता एवं कविता-वाचन का महत्वपूर्ण प्रमाणपत्र विशेष था | इस कार्यक्रम में खटीमा के मित्र कवि राजकिशोर “राज” एवं डॉ चन्द्र शेखर जोशी भी साथ थे | संस्कार भारती, साहित्य शारदा मंच आदि से प्राप्त प्रमाण पत्रों सहित कई प्रमाणपत्र थे जो अब मेरे लिये निर्थक प्राय हो चुके हैं | वैसे इन सभी प्रमाणपत्रों के सूत्र तलाशने का प्रयास करने का प्रयास करूँगा |
संस्कार भारती, साहित्य शारदा मंच आदि से प्राप्त प्रमाण पत्रों सहित कई प्रमाणपत्र थे जो अब मेरे लिये निर्थक प्राय हो चुके हैं |
     अन्त;वस्त्रों, सेल चार्जर, मोवाइल चार्जर ताला चाबी की तो बात ही छोडो ! पुन; मिल जायेंगे पर प्रमाण पत्र जो गये तो गये | हाथ ही मलना है |                     
 (क्रमश:)

          
               

शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

झरें नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य ) (एक नई रचना)


 
गान्धी जैसा कौन अब ?  
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कुक्कुरमुर्त्तों’ से उगे, ‘नेता’ आज अनेक |

गान्धी जैसा कौन अब, चले ‘लकुटिया’ टेक ??

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‘नेतागीरी’ आजकल, बना हुआ ‘व्यवसाय’ |

बने ‘झोपड़ी’ से ‘महल’, पा कर ‘मोटी आय‘||

कई गुना हैं कमाते, जितना खर्चें ‘दाम’ |

निस्स्वार्थ अब खर्च क्यों, कोई करे ‘छदाम’ ||

‘जुवा चुनावी’ जीत ले, ‘छल के पाँसे’ फेंक |

गान्धी जैसा कौन अब, चले ‘लकुटिया’ टेक ??१??


देखो ‘बगुले’ बन गये, ‘राजनीति के हंस’ |

ये सब कसते ‘प्रेम के, तालों’ में ‘विध्वंस’ ||

अपनी अपनी ‘ढपलियों’, पर अपने ही ‘राग’ |

जगह-जगह हैं फूँकते, ‘लीडर’ ‘कलह की आग’ ||

जला के ‘चूल्हा फूट का’, ‘रोटी’ रहे हैं सेंक |

गान्धी जैसा कौन अब, चले ‘लकुटिया’ टेक ??२??


अगर आपदा हो कहीं, अपना करें बचाव |

पा के तट ये स्वयं तो, डुबा के सब की ‘नाव’ ||

‘कुटिल कटारी’ हाथ ले, जिस की पैनी ‘धार’ |

‘मीठे’ बन कर काटते, हैं ‘आपस का प्यार’ ||

हमें बताओ कौन है, धीर-वीर औ नेक ?

 गान्धी जैसा कौन अब, चले ‘लकुटिया’ टेक ??३??



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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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