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गुरुवार, 4 सितंबर 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (8) दहशत (क) खूनी ‘पंजे’ पैने ‘दाँत’ |



 (सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)

जैसे पंछी’ को  कहीं, पकड़े कोई बाज’ |
यों मज़लूमोंपर पकड़, है ‘ज़ुल्मों' की आज ||
स्यार’, ‘भेड़िया लोमड़ी’, का लख कर ‘आक्रोश’ |
डरे-डरे से छुप गये, हैं ‘भोले खरगोश’ ||
अपराधों के गिद्धहैं, उड़ते चारों ओर |
समाज-वनमें किस तरह, रहें प्रेम के मोर??
चाह रहीँ ‘खूँरेज़ियाँ’, करना अपना ‘राज’ |
यों मज़लूमोंपर पकड़’ है, ‘ज़ुल्मोंकी आज ||||

बाज के लिए चित्र परिणाम
आचरणों की मछलियों, का है ‘खस्ता हाल’ |
पड़ा हुआ उन पर निठुर, ‘वित्त-वादका ‘जाल’ ||
जमाखोरियोंके हुये, ‘अजगर’ जैसे ‘पेट’ |
सभी हकोंके मेमने’, चढ़े  इसी की ‘भेंट’ ||
आज तलक भी वक्तका, बदला नहीं ‘मिजाज़’
यों मज़लूमोंपर पकड़’, हैज़ुल्मोंकी आज ||||

रोको  जलती  ईर्ष्या’,  उगल  रही  है  ताप’ !
मत उगलो अब द्वेषका, ‘आँच भरा सन्ताप’ !!
दावानलसी जल रही, है ‘नफ़रत’ की ‘आग’ |
करके  यत्न  संवारिये,  ‘सुमनों’  के ‘अनुराग’ !!
अमनचला मुहँ मोड़ कर, दो उस को ‘आवाज़’ !
यों मज़लूमोंपर पकड़’, हैज़ुल्मोंकी आज |||

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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