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रविवार, 21 सितंबर 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (11) स्वर्ण-कीट (ख) रिश्तों का बाज़ार |

(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)

जगे कंस-रावणयहाँसोये राम व श्याम’ !
वित्तवाद’ की ‘प्रगतिका, कैसा मिला इनाम’ !!
बड़े-बड़े अपराध अब, बने हुये व्यवसाय’ !
न्यायछुपाकर ‘मुहँ’ चला, पनप रहा ‘अन्याय’ !!
दहेज़’ के दुष्पापने, ‘प्रेमी लिये लपेट !
भोली भाली लडकियाँ, चढ़ीं इसी की भेंट !!
स्नेहिल रिश्तोंके लगे, महँगे महँगे दाम’ !
वित्तवाद’ की ‘प्रगतिका कैसा मिला इनाम!!१!!
मन्दिर-मस्जिद कुछ, कई, गुरूद्वारे व मज़ार |
गिरिजाघर-दरगाह कुछ, बने आज ‘बाज़ार’ ||
हुए सियासतके कई, हैं अड्डेबेजोड़ |
शैतानों से कर रहे, चुपके से ‘गठजोड़’ ||
कुछ तीर्थ भी हों गये, ‘हैं ‘अधर्मके ‘धाम’ |
वित्तवाद’ की ‘प्रगतिका कैसा मिला इनाम!!२!!
खुदगर्ज़ी’ की ‘डालपर, फलते फल- अपराध’ |
शोषण-पशु खा कर इन्हें, घूम रहे ‘निर्वाध ||
रोई भारत की धरा’, सूख गये हैं ‘नयन’ !
दिल के दर्दोंको नहीं, कर पाती है ‘सहन’ !!
पता नहीं इस का कभी, क्या होगा परिणाम !
वित्तवाद’ की ‘प्रगतिका कैसा मिला इनाम!!३!!


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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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