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मंगलवार, 16 अप्रैल 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (झ) दिगम्बरा रति |(१) कामुकता-बीज |


(सारे चित्र गूगल-खोज' से स्वाभार)
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‘यौन-क्रान्ति’ की आड़ में, हुई नग्न ‘तहज़ीब’ |
हम  हैरत  में पड़ गये, बात है बड़ी अजीब ||
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‘कलियाँ’ कई गुलाब की, ‘पंखुरियों’ से तंग |
हैं  दिखलाती  चाव से, खुले अधखुले अंग ||
विज्ञापन  के  बहाने, अपने  ‘वसन’ उतार |
अपने ‘सुन्दर रूप; का,  करती हैं ‘व्यापार’ ||
इन्हें देख ‘इंसानियत’, की डोली है ‘नींव’  |
हम  हैरत  में पड़ गये, बात है बड़ी अजीब ||१||


लम्पट लोगों के  लिये, हैं  ये ‘दृश्य’ ‘अजीज़’ |
किन्तु ‘लड़कपन’ में उगे, ‘कामुकता के बीज’ ||
‘तरूणों के मन’  में  छुपी, गयी ‘वासना’ जाग |
कुछ ‘सोई चिनगारियाँ’, भड़कीं बन कर ‘आग’ ||
‘सदाचार’  को  चाटती,  ‘अनाचार  की  जीभ’ |
हम  हैरत  में पड़ गये, बात है बड़ी अजीब ||२||


बालक- तरुण-किशोर सब,  ढूढ़ें ‘काम के भोग’ |
‘नन्हें  भँवरे’, ‘कली’  के,  चाह  रहे  ‘संयोग’ ||
‘इच्छाओं  के  गगन’  में,  ‘दुराचार के  गिद्ध’ |
भोली  किसी  ‘कबूतरी’, के ‘शिकार’ में  सिद्ध ||
इस  ‘पशुता’  से हम बचें,  करो कोई  तरकीब |
हम  हैरत  में पड़ गये, बात है बड़ी अजीब ||३||
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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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