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मंगलवार, 2 अप्रैल 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य (घ) दहशत (३)झुलसे अनुराग


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जग में क्यों फैला हुआ, है ‘दुर्दम आतंक’ |
‘मानवता की गोद में, है आतंक ‘कलंक’ ||

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कई देश इस विश्व के, ‘प्रेम’ से हैं अनजान | 
कैसे रहें पड़ोस में, इस का नहीं है ज्ञान ||
‘शासन की दुर्लालालसा’, या ‘धरती का लोभ’ |
भोली जनता के हृदय, में भर देता क्षोभ ||
‘मन के गगन’ में खिन्न है, ‘राहू’-ग्रसा ‘मयंक’ |
‘मानवता की गोद में, है आतंक ‘कलंक’ ||१||

 

दहशत की इस ‘आग’ में, जले ‘भावना-बाग’ |
पजरे ‘स्नेह के सुमन’ हैं, झुलस गये ‘अनुराग’ ||


कितने ‘भँवरे भाव के’, जल कर हुये हैं राख |
और ‘कामना-तितलियों,’ के झुलसे हैं ‘पाँख’ ||
लगता ‘ज्वालामुखी’ से, झरी ‘आग की ‘पंक’ |
‘मानवता की गोद में, है आतंक ‘कलंक’ ||२||


‘सत्तावाद’ ने हर लिया,है जन जन का ‘हर्ष’ |
 इस से पीड़ित है नहीं, केवल भारतवर्ष |
अमेरिका या अरब या, रूस, चीं, जापान ||
इस के हुये शिकार सब, खो कर ‘अपनी शान’ ||
इस दुनियाँ में अब कहाँ, कौन रहे निश्शंक |
‘मानवता की गोद में, है आतंक ‘कलंक’ ||३||



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About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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