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शुक्रवार, 11 जुलाई 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (3)गुरु-वन्दना(ख) गुरु-गुण-गान (iv)बहुत किये ‘उपकार’ !

( कुछ चित्र 'गूगल-खोज'से साभार) 


सदा ‘ज्ञानकी बीन’ के, जोड़े टूटे ‘तार’ |

इस ‘समाज’ पर ‘गुरु’ ने, बहुत किये ‘उपकार’ ||


जब ‘हद’ से ‘बेहद’ हुये, घनानन्द के ‘पाप’ |

तब चाणक्य बने ‘गुरु’, हरने सबके ‘ताप’ ||

जब ‘सिद्धार्थ’ बन गये, ज्ञानी ‘गौतम बुद्ध’ |

क्रूर ‘अंगुलीमाल’ भी, हुआ ‘प्रबुद्ध’ व ‘शुद्ध’ ||

सुलझा दी ‘उलझन’ सभी, ‘गुरु’ ने सुनी ‘पुकार’ |

इस ‘समाज’ पर ‘गुरु’ ने, बहुत किये ‘उपकार’ ||१||


‘धूल’ में ‘हीरा’ मलिन था, ग्वाला बालक ‘तुच्छ’ |

उस ‘हीरे’ को ‘प्रेम’ से, पोंछ किया था ‘स्वच्छ’ ||

‘बीज’-बीच ज्यों ‘वृक्ष’ है, होता लेकिन ‘सुप्त’ |

वैसे विकसित ‘गुण’ हुये, बन गया ‘चन्द्रगुप्त’ ||

‘समाज’ का ‘गुरु’ प्रबल हो, हो न कभी ‘लाचार’ !

इस ‘समाज’ पर ‘गुरु’ ने, बहुत किये ‘उपकार’ ||२||


‘गुरुवर’ गोरखनाथ ने, बन कर ‘कृपानिधान’ |

भटके जो ‘पथ’ से उन्हें, दिया ‘ज्ञान का दान’ ||

भर्तृहरि, राँझा तथा, ‘ज्ञानी’ गोपीचन्द |

‘गुरु’ ने नरसी आदि के, काटे ‘भव के फन्द’ ||

‘ऊसर’ ‘उपजाऊ’ किये, बरसा ‘अमृतधार’ |

इस ‘समाज’ पर ‘गुरु’ ने, बहुत किये ‘उपकार’ ||३||



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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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