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गुरुवार, 27 सितंबर 2012

ज़लजला(एक भीषण परिवर्तन) ((क)वन्दनाज़लजला(एक भीषण परिवर्तन) ((क)वन्दना (४) राष्ट्र-वन्दना ! मेरे भारत देश ! (अ)

कल गणेश चतुर्थी के पर्व पर भारतीय गण राज्य के तूफानी परिवर्तन की वेदना जब असह्य हो गयी तो एक पुराने गीत से भाव-व्यक्त करना उचित समझा |एक लंबा 'पद्धरी-गीत' दो भागों में प्रस्तुत है | लीजिये उसका प्रथम भाग !



      (४)
     राष्ट्र-वन्दना
     ======== 
  ! मेरे भारत देश !
  


मेरे भारत देश तुम्हारा,रहा सदा इतिहास मनोहर!
‘मानवता’औ ‘सत्य-अहिंसा-प्रेम’,तुम्हारे रहे धरोहर ||
‘छल-प्रपञ्च औ प्रवन्चना’ से, सदा दूर तुम रहे अनोखे-
पर ‘आगन्तुक-अतिथि गणों’, ने दिये तुम्हें धोखे ही धोखे ||१||

 

तुमने दे कर शरण सभी को,’शरणागत की आन’ निभाई |
यहाँ रहा जो भी,उसको थे बाँटे,धन-साधन सुख दायी ||
‘भाषा सबकी,सब की संस्कृति’,तुम में रही,फली औ फूली |
सब धर्मों का किया मान वह,बड़ा हो या हो अति मामूली ||२||


राम,कृष्ण,गौतम,कनिष्क औ चन्द्रगुप्त सब पले यहाँ पर |
अकबर,राणा,शिवा,जफ़र औ गाँधी,फूले फले यहाँ पर ||
संकरित,हिन्दी,अरबी,उर्दू,अंग्रेज़ीसब तुमने बोलीं |
कई रंग के तितली,भँवरों,और पंछियों की हर टोली ||३||-

 

रही तुम्हारी प्रीति-वाटिका में मिल जुल कर सदा प्यारसे |
फल खाये,या पराग-मधु पी,सुख में बीते दिन दुलार से ||
किन्तु कई ऐसे भी पनपे, जो थे भीषण अत्याचारी |
नादिर से, चंगेज़खान से,‘मानवता’ के लिये ‘कटारी’ ||४||

 

‘छुरा तुम्हारी पीठ में घोंपा’,आम्भीक ने,‘जय चन्दों’ ने |
वाजिदअली, मीरजाफ़र से सत्ता के लोभी अन्धों ने ||
और फ़िरंगी गोरे बन्दर, मधुवन में जब से घुस आये |
हाथ बढ़ा कर सुन्दर सुन्दर फूल और फल तोड़े खाये ||५||

कुचल कुचल कर‘सुमन-क्यारियाँ’,रौंदीं,मलिन किया‘कुसुमाकर |
‘शहद’और‘जीवनी-सुरस’ सब जमा किये बाहर ले जा कर ||
 कसा ‘शिकंजा छल का’, हाथों पाँवों में जन्जीरें कस दीं |
तुमको ‘दास’ बनाने की थीं ‘उलटी पुलटी चालें’ चल दीं ||६||



और यहाँ की ‘संस्कृति’ पर थी ऐसी गँदली छाप लगा दी |
बदल दिया ‘इतिहास’,’नाश की ढपली, पर यों थाप लगा दी ||
‘सत्ता-मद,खिताब के जूठे-झूठे मान’ के भूखे ‘कूकर’ |
बाँधे‘सोने-चाँदी की जंजीरों’में गोरों ने कास कर ||७||


‘आंगल-सत्ता के चंगुल’ से, तुम्हें छुड़ाया ‘दीवानों’ने |
‘जज्वों के मरहम’ से ‘सारे घाव’ भर दिये ‘मस्तानों’ ने ||
‘स्वतन्त्रता की दीप-शिखा’ पर,प्राण हट दुए ‘परवानों ने ||
थक कर ‘छोड़ दिया’ भारत को ‘रक्त पी रहे हैवानों’ ने ||८||


मेरे प्यारे वतन सुहाने! तब तुमने पाई आज़ादी !
किन्तु ‘तुम्हारी सन्तानों’ ने,’गरिमा की खेतियाँ’ जला दीं ||
‘स्वार्थ,घृणा की आग’जला कर, ‘लोभ और तृष्णा-ईंधन’ में |
‘ज्ञान-प्रेम-धन’ छोड़ रमे हैं,अब ‘इनके ओछे मन’ धन में ||९||
                                 (क्रमश:)
       


ज़लजला(एक भीषण परिवर्तन) ((क)वन्दना(३) गुरु-वन्दना !! हे गुरु कृपा कर दीजिये !!



सारे चित्र गूगल-खोज से साभार



====****====****====
 

सद्बुद्धि का वर दीजिये !
हे गुरु कृपा कर दीजिये !!


!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

‘सद्ज्ञान’ को भूले हुये,मन में है ‘कंचन-कामिनी’ |

‘जल-दान को भूले हुये घन’ में है केवल ‘दामिनी’ ||



‘व्यवहार के हर बाग’ में |
‘पादप’ जले हैं ‘आग’ में ||
यह ‘दामिनी’ है आ गयी |
‘हर प्यारी क्यारी’ खा गयी ||
‘कलि-कोंपलें’ मुरझा गयीं |
‘लजवन्तियाँ’ मुरझा गयीं –

देखो तो,’‘नाज़ुक प्रीति’ की,
‘मन-दान की हर रीति’ की ||

सोया हुआ ‘विवेक’ है |
मद- अन्ध नर हर एक है ||
‘क्या है बुरा,क्या है भला’ ||
इसको भुला कर है चला ||
‘नश्वर नशीले वित्त में |
डूबे हुये हर चित्त’ में ||

‘उद्बोध’ को भर दीजिये !
‘दुर्बोध’ को हर लीजिये !!
सद्बुद्धि का वर दीजिये !
हे गुरु कृपा कर दीजिये !!१!!

 

‘मन की सुहानी काँपती’ देखो तो,’धरती’ डोलती !
होता ‘प्रलय’ कैसा निठुर,’ये भेद सारे’ खोलती ||

‘मनु-पुत्र की है कामना’ |
ओढ़े है ‘चूनर वासना’ ||
आँधी सी चलती ‘श्वास’ है |
‘हलचल’ लिये ‘निश्वास’ है ||
पहने ‘अधीरज’,’आस’ है |
करती, ‘नियति-उपहास’ है ||

काँपी है काया ‘नीति’ की ,
‘आशा’ की और ‘प्रतीति’ की ||

टूटी ‘धर्म की टेक’ है |
‘झटके’ पड़े अनेक हैं ||
आने को है यों ‘ज़लजला’ |
‘तूफ़ान’ ‘आँचल’ में पला ||
‘हल चल’ लिये ‘हर कृत्य’ में |
‘उन्मत्त ताण्डव-नृत्य’ में ||

स्थिर इसे कर दीजिये !
‘वरदायी कर’ धर दीजिये !!
सद्बुद्धि का वर दीजिये !
हे गुरु कृपा कर दीजिये !!२!!
 

‘आकांक्षा-कमलों-भरे’ जो ‘भावना के ताल’ हैं |
झोंकों से,’शान्त-तल’ हिला, ‘लहरें’ उठीं उत्ताल’ हैं ||

झरती हुयी हर पंखुरी |
उड़ती बिचारी, बेधुरी ||      
जैसे ‘कटी पतंग’ है |
‘पवनों’ से बेबस तंग है ||
‘धूमिल’ सुहाना रंग है ||
ज्यों ‘पर नुचा विहंग’ है |

असहाय, ‘चोटें’ झेलती,
‘मौसम’ की ‘हर अनीति’ की ||

मैले ‘सभी अभिषेक’ हैं |
उल्लास सब निश्शेष हैं ||
आयीं ‘दरारें’, ‘सत्य’ में |
हैं ‘मस्तियाँ’,‘असत्य’ में ||

अब शान्त ‘अम्बर’ कीजिये !

अब रोक ‘अन्धर’ लीजिये 
सद्बुद्धि का वर दीजिये !
हे गुरु कृपा कर दीजिये !!३!!

 

 


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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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