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मंगलवार, 7 मई 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (ठ) आधा संसार | (नारी उत्पीडन के कारण) (१) वासाना-कारा (||) रूप-बाज़ार


असम्वैधानिक  'यौन व्यापार' हर गरीब करे यह आवश्यक नहीं | यदि 'धर्म का स्तम्भ' ठीक से थाम लिया तो  गरीबी ''फकीरी' है  और 'ईश्वर लीन' करेगी  जैसा कि सुदामा का उदाहरण है, अन्यथा वह 'पापका  कारण | फिर इस 'कलि-काल' में जो कुछ पर्दे की आड़ में हो सकता है, वही उल्लिखित है इस रचना में | हर बात हर किसी के लागू नहीं होंती | 'वुभुक्षितो  किम्न करोति पापं'   |

(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)   


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चोरी से बिकता जहाँ, है ‘आधा संसार’ |
‘वित्त’ कमाने के लिये,लगा ‘रूप-बाज़ार’ ||

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फुटपाथों  पर रह  रहे, कई  लोग   ‘मज़बूर’ |
व्यवसायों  के  लिये  जो,  भटके  घर से दूर ||
उदर भरें वे किस तरह, ‘भूख’ का सह ‘सन्ताप’ |
फँसे  बेबसी   में   करें,  घोर  ‘घिनौने  पाप’ ||
‘आग’  बुझाने  ‘जठार’  की, हैं  कितने  लाचार  |
‘वित्त’  कमाने  के लिये, लगा  ‘रूप - बाज़ार’ ||१||




‘सदाचार’ क्या  चीज़  है,  इन्हें  नहीं  कुछ  ज्ञान |
‘घर की इज़्ज़त’ बन गयी,  ‘रोटी’  का  ‘सामान’  ||
‘अड्डे  जुवे  के’  हैं   कई,  ‘घर’ ‘पापों के धाम’  |
और  कई  ‘चकले’  बने,   हुये  बहुत  बदनाम  ||
होते   ‘रातों’   में   जहाँ,  खुल  कर  ‘यौनाचार’ |
‘वित्त’  कमाने  के लिये, लगा  ‘रूप - बाज़ार’ ||२||


‘धर्म’-‘जाति’  से हीन  ये,  ‘रोटी’  इनका  ‘धर्म’ |
इनकी   घरनी- बेटियाँ,   बेचा   करतीं   ‘शर्म’ ||
इस  बस्ती   की   नारियाँ,   ‘नर-आखेट-प्रवीण’ |
करतीं  होटल  क्लबों   में,   हैं   ‘रातें’  ‘रंगीन’ ||
इन  को   भाती   है  सदा,   ‘नोटों  की बौछार’ |
‘वित्त’  कमाने  के लिये, लगा  ‘रूप - बाज़ार’ ||३||





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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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