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रविवार, 31 अगस्त 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य)(5)समाज-चर्चा (छ) ‘दुःख’ के ‘बादल’ |

                                                                                           (सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
    
             
      
‘परिवार्रों की ‘एकता’, टूट रही हर ओर |
‘दुःख के बादल’ इसी से, बरस रहे ‘घनघोर’ ||
‘व्यवसायों’ के लिये सब, करते यों ‘संघर्ष’ |
‘समय’ नहीं जों बैठ कर, बाँटें ‘दुःख’ या ‘हर्ष’ ||
कम्प्यूटर, टेलीविजन, अनन्त ‘अन्तर्जाल’ |
अब न ‘प्रीति की बैठकें’, लुप्त हुई ‘चौपाल’ ||
गाँव-गाँव में बढ़ रहा, है ‘अनचाहा शोर’ |
‘दुःख के बादल’ इसी से, बरस रहे ‘घनघोर’ ||१||
‘बाग’ कटे, पाटे गये, बड़े बड़े सब ‘ताल’ |
नयी ‘फैक्ट्री’ खुल गयी, जगह-जगह हर साल ||
खेत घटे, अब हैं कहाँ, प्यार भरे ‘खलिहान’ |
बढ़ा ‘मशीनीकरण’ औ, ऊँचे उठे ‘मकान’ ||
‘अपनेपन’ को गया है, ‘परिवर्तन’ झकझोर |
‘दुःख के बादल’ इसी से, बरस रहे ‘घनघोर’ ||२||


लोग गाँव के शहर में, बसे हुए ‘रस-हीन’ |
‘देश’ छोड़ ‘परदेश’ की, ‘नौकरियों’ में ‘लीन’ ||
‘रंग विदेशी’ यों चढ़ा, मिटा ‘प्रीति’ का रंग ‘ |
बदला बदला अजब सा, है ‘जीने का ढंग’ ||
‘प्रेम का चन्दा’ ढूँढ़ते, अब ना ‘नेह-चकोर’ |
‘दुःख के बादल’ इसी से, बरस रहे ‘घनघोर’ !|३||


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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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