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बुधवार, 6 मार्च 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (क) वन्दना (१) सरस्वती वन्दना





हे   माँ   वीणा-वादिनी !,    कर वीणा- झंकार !
‘वाणी’ को ‘ध्वनिमय’ करो, हर कर सभी विकार !!
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व्यंजनाभिधा,लक्षणा’, तीन शब्द की शक्ति |
मेरे  काव्य  में  भरें,  ऐसी  दो अनुरक्ति !!
हँस बना लों तुम मुझे, मुझ पर हो आरूढ़ |
‘चरण तुम्हारे’ सिर धरूँ, यद्यपि हूँ मति मूढ़ ||
द्वन्द, ‘कलह की वृत्ति’ का माता करो सुधार !!
‘वाणी’ को ‘ध्वनिमय’ करो, हर कर सभी विकार !!१!!


वाणी अर्थ से युक्त हो, ‘दोहा-गीत के छन्द |
ऐसे रस-मय भाव हों, हारें ‘ह्रदय का द्वन्द’ ||
‘अलंकार’  से  हों  सजे,  मेरे   ‘दोहा-गीत’ |
‘सत्य-प्रेम-पीयूष’  से, सब  के मन हूँ  शीत ||
अम्ब, ’कृपाके अम्बु’ से, चित्त का करो निखार !!
वाणी’ को ‘ध्वनिमय’ करो, हर कर सभी विकार !!२!!


हे माँ ! मुझ पर कृपा कर, ‘वाणी’ ‘सत्य’ से सींच |
दे बल, जिससे  कह सकूँ,   ‘सत्य’ सभी के बीच ||
कड़वी ‘नीम की पत्तियाँ, हैं औषधि की भाँति |
इनको कर लें सहन सब. क्ल्रिपा करो यह मातु ||
ऋण समाज का है बहुत, उसको सकूँ उतार ||
वाणी’ को ‘ध्वनिमय’ करो, हर कर सभी विकार !!३!!


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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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