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गुरुवार, 26 जुलाई 2012

शंख-नाद(एक ओज गुणीय काव्य)-(स) प्रेरण -(२)-पर्वत से रहना अटल !

 

तूफानों में हो सबल |
पर्वत से रहना अटल ||

चारो ओर से उठ रहीं |
खूनी हिंसा-आंधियां |
डरी हुईं आवादियाँ ||
मानवता को मेटने -
चली हैं देखो वेग से-
कई हवाएँ नाश की ||
हिलने लगी है 'सभ्यता' !
लेकिन तुम रहना अचल !
पर्वत से रहना अटल!!१!! 
  
काल-चक्र का खेल है |
कल था कुछ कुछ आज है |
'दानवता' का राज है || 
फिर भी नाम 'स्वराज' है ||
उपदेशों की आड़ में |
चलते पैने तेग से |
किसी व्याध के पाश सी -
छलने लगी है 'सभ्यता' 
तुम जाना बच कर निकल !
पर्वत से रहना अटल !!२!!
    
नकली मीठी गन्ध से |
महका हुआ "प्रसून" है |
होश से परे जूनून है ||
जिसके सिर पर खून है ||
धोखा हमको मिल रहा |
इसके हर उद्वेग से 
आस मिटी 'मधुमास' की -
पतझर की होतव्यता  
देखो तुम रहना सँभल !
पर्वत से रहना अटल !!३!!
    



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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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