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सोमवार, 30 जून 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (२)सरस्वती-वन्दना (ख)रस-याचना(v)करुण-गम्भीर-भक्ति-रस |

(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार !)


जीवन ‘करुणा’ के बिना, ‘शुष्क-रेत’ निस्सार |
अत: ‘करुण-रस’ से करो, नम सारे ‘’व्यवहार’ !!
 लुढ़के ‘रस’ की ‘गागरी’, करे ‘धरातल’ स्वच्छ !
ऐसे ‘नयनों’ से झरें, ‘अश्रु’ भिगो दें ‘वक्ष’ !!
करुण सदा ‘पर शोक’ में, रहें बसे ‘रस-स्रोत’ !
अम्ब ! ‘वेदना-वेद’ बन, जाये ‘तम’ में ‘ज्योति’ !!
‘पर-पीड़ा’ में लोग सब, रहें सदा तैयार !
अत: ’करुण-रस’ से करो, नम सारे ‘’व्यवहार’ !!१!!


‘दया-भाव’ हो ह्रदय में, सब के लिए समान !
वैर तजें सब के दुखों,का कर सकें ‘निदान’ !!
‘सागर’ सी ‘गम्भीरता’, मय हो ‘रस गम्भीर’ !
जिसमें ‘गोते’ लगाकर, ‘ज्ञानी’ बनें ‘सुधीर’ !!
‘दम्भ-क्रूरता’ रोग हैं, इनका हो ‘उपचार’ |
अत: ’करुण-रस’ से करो, नम सारे ‘’व्यवहार’ !!२!!
‘भक्ति-भावना’ से करे, हर जन ‘आत्मखोज’ !
‘आत्मा’ में ‘परमात्मा’, सा ‘जागृत’ हो ‘ओज’ !!
‘कण-कण’ में ही व्याप्त है, रमता अपना ‘राम’ |
‘ज्ञान-प्रेम’ ‘गति-शील’ हों, लगे न कभी ‘विराम’ !!
‘पर सेवा’ हित ‘भक्त जन’, सब पर रहें ‘उदार’ !
अत: ’करुण-रस’ से करो, नम सारे ‘’व्यवहार’ !!३!!



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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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