इस रचना में अपने क्रम के अनुसार यह बताया गया है कि घटिया गन्दे विज्ञापनों और नशाखोरी का समाज के 'भोले बचपन' पर क्या असर पडता है | (सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
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त्याग ‘आवरण लाज का’, ‘शील के वसन’ उतार |
‘रति’ मदिरा पी कर चली, लिये ‘वासना-ज्वार’ ||
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घर के बेटे - बेटियाँ, अल्पायु में आज |
ढूँढ रहे हैं ‘भोग’ सब, दूषित ‘बाल-समाज’ ||
‘नृत्य-कला’ के नाम पर, ‘नग्नवाद’ का नाच |
‘कामुक मुद्रा’ दिखाते, ‘नर्तक’ बने ‘पिशाच’ ||
‘नर्तकियाँ’ भी नाचतीं, ‘अपने अंग’ उघार |
‘रति’ मदिरा पी कर चली, लिये ‘वासना-ज्वार’ ||१||
विज्ञापन में नारियाँ, कर ‘अभिनय दुश्शील’ |
‘नाम’ कमाती फिर रहीं, कर ‘नाटक अश्लील’ ||
‘शैशव’ के मन पर पड़ी, ऐसी ‘मीठी चोट’ |
‘भोले-निश्छल ह्रदय’ में, भरे ‘अनगिनत खोट’ |
‘दृश्य-निर्वसन’ देख कर, ‘कामी’ बने ‘कुमार’ ||
‘रति’ मदिरा पी कर चली, लिये ‘वासना-ज्वार’ ||२||
‘लक्षमन-रेखा’ तोड़ कर, ‘तबियत के रंगीन’ |
दुराचार ‘रावण’ बना, ‘मर्यादा’ से हीन ||
‘सिया-लाज’ का ‘हरण’ कर, ‘कामी’ कई किशोर |
धूमिल कर के आयु का, ‘गँदला’ करते ‘भोर’ ||
‘काम-पिपाशा’ कर रही, ‘मर्यादा’ को पार |
‘रति’ मदिरा पी कर चली, लिये ‘वासना-ज्वार’ ||३||
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