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रविवार, 28 अप्रैल 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (ट) ‘मानवीय पशुता’ |(५) ‘रति’ मदिरा पी कर चली |


इस रचना में अपने क्रम के अनुसार यह  बताया गया  है कि  घटिया  गन्दे विज्ञापनों और नशाखोरी  का समाज के 'भोले बचपन' पर क्या असर पडता है | (सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार) 





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त्याग ‘आवरण लाज का’,  ‘शील के वसन’  उतार |
‘रति’  मदिरा  पी कर  चली, लिये ‘वासना-ज्वार’ ||


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घर   के   बेटे - बेटियाँ,   अल्पायु   में  आज  |
ढूँढ  रहे  हैं  ‘भोग’  सब,   दूषित  ‘बाल-समाज’ ||
‘नृत्य-कला’  के  नाम  पर,  ‘नग्नवाद’  का नाच |
‘कामुक मुद्रा’  दिखाते,   ‘नर्तक’   बने  ‘पिशाच’ ||
‘नर्तकियाँ’   भी   नाचतीं,   ‘अपने अंग’   उघार |
‘रति’ मदिरा पी कर  चली, लिये ‘वासना-ज्वार’ ||१||


विज्ञापन   में   नारियाँ,   कर  ‘अभिनय दुश्शील’ |
‘नाम’ कमाती  फिर   रहीं,   कर  ‘नाटक अश्लील’ ||
‘शैशव’  के   मन  पर  पड़ी,  ऐसी  ‘मीठी चोट’ |
‘भोले-निश्छल ह्रदय’   में,   भरे  ‘अनगिनत खोट’ |
‘दृश्य-निर्वसन’  देख  कर,  ‘कामी’  बने  ‘कुमार’ ||
‘रति’ मदिरा पी कर  चली, लिये ‘वासना-ज्वार’ ||२||



‘लक्षमन-रेखा’  तोड़   कर,   ‘तबियत के रंगीन’  |
दुराचार  ‘रावण’   बना,   ‘मर्यादा’   से   हीन   ||
‘सिया-लाज’ का ‘हरण’ कर,  ‘कामी’ कई  किशोर  |
धूमिल कर  के  आयु  का, ‘गँदला’  करते  ‘भोर’ ||
‘काम-पिपाशा’  कर  रही,   ‘मर्यादा’   को   पार  |
‘रति’ मदिरा पी कर  चली, लिये ‘वासना-ज्वार’ ||३||


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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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