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मंगलवार, 4 सितंबर 2012

ज्वालामुखी (एक गरम जोश काव्य (क) वन्दना- (2)मातृ-वन्दना वत्सलता की मूर्तिहो जननी !! (सरस्वती वन्दना)





  


  मातृ-वन्दना       

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       !! वत्सलता की मूर्ति हो जननी !!
            (सरस्वती वन्दना)



‘वत्सलता’की मूर्ति हो जननी,माताआँचल’लहराओ!
   मेटो तृष्णा-ताप जगत का,मन में तोषक छंद भरो !!                

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होठों पर ‘प्रहसन की रेखा‘,मन में 'ज्वालामुखी ’जला|
‘ज्वाल’नहीं है,'धुआँ’ नहीं है,कितना हो कर दुखी जला!!
देकर तुम ‘अनुराग’ सभी को,’सरस राग’से सरसाओ!!
सुलगी‘दहकी अनल’बुझा कर,इसका‘विप्लव’शांत करो!!

मेटो तृष्णा-ताप जगत का,
मन में तोषक छन्द भरो !!१!!

 


भीतर ‘नाग-हलाहल विषधर’ऊपर कितना हरा भरा !
ऐसे हर‘मधुवन-कानन’से,सजी है माता अखिल धरा!!
माता विषधर खाने वाले,निज मयूर पर तुम आओ !
ढूँढ ढूँढ कर उसे चुगाओ,इन ‘नागों’ का अंत करो !!

मेटो तृष्णा-ताप जगत का,
मन में तोषक छ्न्द भरो !!२!!

 


‘तमो-तोम,अघ,आलस’की,माँ,चारों ओर ‘अँधेरी’ है |
मिट जायेगा ‘सत्’,’सुज्ञान’माँ,इस में तनिक न देरी है ||
आलोकित कर ‘ज्ञान का दीपक’,बुद्धि सभी की चमकाओ !
मारो अम्ब ‘अघ-असुर’इसकी चाल घिनौनी बन्द करो !!

मेटो तृष्णा-ताप जगत का, 
मन में तोषक छन्द भरो !!३!!

 

‘विद्या,कला,गीत’बिकते हैं,कवि,गायक पूजक धन के|
कलाकार कुछ छली,प्रपंची,कितने मैले मन इनके ||
‘प्रेम के मानसरोवर’में माँ,इनके ‘मानस’नहलाओ |
निखरें चित्त,विकार-रहित हों,ऐसा कोई,प्रबन्ध करो!!

मेटो तृष्णा-ताप जगत का,
मन में तोषक छन्द भरो !!४!!

  

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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