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मंगलवार, 2 अक्तूबर 2012

गांधी-यश -गन्ध(एक मुक्तक काव्य) - जग में आये बापू जी |


गान्धी-जयन्ती पर विशेष यह प्रस्तुति,जाजला (मुक्तक काव्य) में

उससे हट कर एक अलग हट कर विशेष प्रस्तुति है !

(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार) 


जग में आये बापू जी |

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‘प्रलय-कल’ के सदृश पाप जब, बढे हुये थे  धरती पर |
तब थे तुम ‘अवतार’सरीखे,जग में आये बापू जी |
‘ज्ञान-हीनता की अँधियारी’छायी थी जब धरती पर –
‘जगमग जगमग,जलता ज्योतित दीपक’,लाये बापू जी ||


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बिखर चलीं ‘संसृति की लड़ियाँ’,’मन के मोती’टूट गये |

‘मानवता की देवी’ रूठी, ‘सद्गुण सारे’ ;रूठ गये ||


‘निर्दयता’,’हिन्सा’, ‘पीड़ा की अग्नि’ जली थी प्रचण्ड हा !

‘दया’,’अहिंसा’, ‘करुना’ के घन’ साथ में लाये बापू जी |

                     जग में आये बापू जी ||१||


‘अकर्मण्यता’ के हाथों में,कठपुतली सा नाच रहा |

‘महानाश’ का ‘ग्रन्थ’,‘पाप के अक्षर’ से था बांच रहा ||

‘काल-चक्र’ की गति में बेबस, फँसा हुआ था जब भारत |

‘श्रमाक्षरों’ से ‘पुण्य-वेद’ तब रचाने आये बापू जी ||

                     जग में आये बापू जी ||२||



‘अपनी माँ’ को ‘माँ’ न् कहेगा, ऐसा था प्रतिबन्ध  यहाँ |

‘तानाशाही के पिंजरे’ में ‘राष्ट्र-प्रेम’ था बन्द यहाँ ||

‘मात्री-भावना’,’बन्धु-भावना’ सब ‘कारा, में बन्द हुये |   

हमें बचाने, ‘अपनी आहुति’ देने आये बापू जी ||

                  जग में आये बापू जी ||३||



वे गोरे थे नहीं, ’खटमलों का समूह’ था ‘प्यास लिये |

या ‘जोंकों का यूथ’, बस गया, ‘रक्त-पिपासा’ साथ लिये ||



‘श्री’,’वैभव’,’यश’ नहीं,’रक्त’ ही चूस रहा वह भारत का |

‘सात्याग्रह’ नहिं, ‘मत्कुण-नाशक औषधि’ लाये बापू जी ||

                        जग में आये बापू जी ||४||



‘प्रलय-कल’ के सदृश पाप जब, बढे हुये थे  धरती पर |

तब थे तुम ‘अवतार’सरीखे,जग में आये बापू जी |

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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