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मंगलवार, 19 जून 2012

बंजर दिल की धरती। ( ह्कीक़त की एक गज़ल)



प्यार का फूटा नहीं है ,एक अंकुर देखिये।
दिल की धरती हो गयी है,कितनी बंजर देखिये।।
खाद,पानी 'प्रेरणा' के हो गये हैंसब विफल-
आचरण की स्थली अब बहुत ऊसर देखिये||
   
  
सबके जज्वातों की चोटों का असर मुझ पर हुआ-
दर्द का छलका है आँखों में समुन्दर देखिये ||
  
कल तलक थीं रोशनी की धुंधली उम्मीदें मगर-
आज फिर छाया हुआ कोहरे का मंज़र देखिये||
  
मैंने सोचा था कि उनको दोस्त का दूं मर्तबा-
पर उन्होंनेपीठ पर मारा है खंज़र देखिये||
  
'प्रसून'अंगों से लगेजो गगन बेली की तरह-
जोड़ कर सम्बन्ध पीते,लहू शातिर देखिये||




गज़ल कुञ्ज (गज़ल-संग्रह) (अ) प्रणाम (आराधना गज़ल)- (१)प्रियतम प्रणाम-(क) हे प्रियतम पूर्ण निर्विकार


१) प्रियतम-प्रणाम

=============
(क) हे प्रियतम पूर्ण निर्विकार 
००००००००००००००००००००

 
तुम प्रकाश,तुम हो अंधकार| 
हे प्रियतम पूर्ण निर्विकार ||
 

निगमागम तुम्हीं अपारगम्य|
पा सकता तुम से कौन पार?? 

 

 प्रियतम तुम ब्रह्म,तुम्हीं माया-
तुम असत्,किन्तु तुम सत् अपार|| 

 
तुम हो समष्टि,हो व्यष्टि तुम्हीँ-
आकार-हीन तुम महाकार||              
   

 निष्काम,कामना हो सब में-
संसृति तुम, फिर भी हो असार||


तुम परम शून्य, तुम हो अनंत-
निर्गुण तुम फिर भी गुणाकार||
  

प्रिय,'अस्तिनास्ति'से परे हो तुम-
तुम को प्रणाम शत कोटि बार||
 
अनिकेत व्याप्त हो कण कण में-
सब के आधार हो निराधार ||
 
है "प्रसून" प्रियतम, शरणागत-
भव-सिंधु से कर दो इसे पार|| 

 
 



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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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