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सोमवार, 7 जुलाई 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (3)गुरु-वन्दना(ख) गुरु-गुण-गान (i) आदि गुरु परमात्मा |

(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार) 

बरसा कर ‘करुणा-सुमन’, करो ‘ज्ञान-बौछार’ !
मन पर छाई ‘मैल’ का, हे गुरु करो निखार !!
‘गुरु’ का वर्णन कर सके, कोई नहीं ‘सशक्त’ |
‘वेद-शास्त्र’ असमर्थ हैं, ‘गुरू-तत्त्व’ अव्यक्त ||
‘आदि गुरु’ परमात्मा, वह ‘अनादि’-‘अन्-अन्त’ |
जिसका ‘पार’ न पा सके, ज्ञानी-ऋषि-मुनि-सन्त ||
‘शक्ति-ऊर्जा-रूप’ में, पूर्ण ‘निर्-आकार’ |
मन पर छाई ‘मैल’ का, हे गुरु करो निखार !!१!!




‘उत्पादक-पालक-शमक’, तीनों ‘शक्ति-स्वरूप’ |
‘ब्रह्मा-विष्णु-महेश’ ये, ‘त्रिदेव’ ‘गुरु’ के ‘रूप’ ||
‘सन्त-महात्मा-साधु जन’, ‘धर्म-धुरी’ कुछ ‘भूप’ |
‘ज्ञान-पिपासा’ के लिये, गहन ‘ज्ञान के कूप’ ||
‘पन्थ-प्रदर्शक’ सभी गुरु, ‘ईश्वर’ के ‘अवतार’ |
मन पर छाई ‘मैल’ का, हे गुरु करो निखार !!२!!



बता ‘पुण्य का मार्ग’ तुम, रखो ‘पाप’ से दूर !
सदा तुम्हारा रहा है, गुरु यह ही ‘दस्तूर’ ||
बिना तुम्हारे कौन जन, पाता है कब ‘ज्ञान’ !
और तुम्हारी ‘शक्ति’ का, खुद है ‘ब्रह्म’ प्रमाण ||
‘जग की पीड़ा’ को सके, तुम बिन कौन निवार !
मन पर छाई ‘मैल’ का, हे गुरु करो निखार !!३!!




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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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